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________________ राजा ने शंकर से कहा, सेठ! तुम तो हमारे राज्य का गौरव हो। तुम्हारा नाम तो मैंने कई बार सुना पर भेंट का अवसर आज ही आया है। शंकर ने कहा, महाराज! आप भूल रहे हैं, पहले भी हमारी भेंट हो चुकी है। राजा ने कहा, हम पहले कब मिले, मुझे स्मरण नहीं आ रहा है। शंकर ने कहा, इतने निकट के रिश्ते को भी आप भूल रहे हो! पर मैं अपने श्वसुर को नहीं भूल सकता। शंकर की बात सुनकर राजा विस्मित हो गया। रूपकला ने उपस्थित होकर अपने पिता को प्रणाम किया। राजा गद्गद हो गया। उसे अपनी हठ पर ग्लानि और अपनी पुत्री की बुद्धिमत्ता और भाग्य पर अपार हर्ष हुआ। उत्सव महोत्सव में बदल गया। महोत्सव के अन्त में राजा सुमतिचन्द्र ने शंकर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। ____ रूपकला और शंकर श्रेष्ठ जीवन जीकर सद्गति को प्राप्त हुए। रूपकांता (आर्या) इनका समग्र परिचय रूपा आर्या के समान है। (देखिए-रूपा आया) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., चतुर्थ वर्ग, अध्ययन 5 रूपप्रभा (आर्या) आर्या रूपप्रभा का संपूर्ण कथानक आर्या रूपा के तुल्य जानना चाहिए। (देखिए-रूपा आयो) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., चतुर्थ वर्ग, अध्ययन 6 रूपली राजपुर गांव के एक क्षत्रिय किसान की पुत्री जिसका बाल्यकाल गांव के निकट जंगलों में गाएं चराते हुए बीता और मातृमृत्यु के पश्चात् किशोरावस्था वसंतपुर नगर में सेठ धनपाल की गौसेवा करते हुए व्यतीत हुई। धनपाल सेठ एक जिनधर्मानुयायी श्रावक थे और रूपली पर पितृस्नेह उंडेलते थे। पर रूपली को गउओं के साथ वन-विहार करने में विशेष आनन्द प्राप्त होता था इसलिए उसने नगर में रहकर भी गौसेवा को ही अपने लिए चुना था। वह प्रतिदिन प्रभात में गायों के संग वन में चली जाती और संध्या में गायों को लौटा लाती। ऐसे ही वह यौवन के द्वार पर पहुंच गई। रूपली के जीवन में नगर में आने के पश्चात् जो एक अन्य परिवर्तन हुआ वह था उसके हृदय में जिन धर्मानुराग का बीजावपन हो जाना। धर्मपिता के संग वह कई बार मनियों के दर्शनों के लिए गई। उपदेश सुनकर देव-गरु-धर्म पर उसकी आस्था सुदृढ़ बनी। वह नवकार मंत्र की नित्य आराधना करती। ___एक बार वसंतपुर नरेश विमलसेन शिकार खेलने के लिए वन में गया। राजा की दृष्टि गौसेवा में लीन रूपली पर पड़ी तो वह उस कन्या के आकर्षण में बंध गया। उसने रूपली से उसका परिचय प्राप्त किया और नगर में लौट आया। राजा के अंतःपुर में कई रानियां थीं, पर रूपली सी रूपवान एक भी नहीं थी। राजा ने रूपली को अपनी पटरानी बनाने का निश्चय कर लिया। उसने अपने प्रधानमंत्री को सेठ धनपाल के पास रूपली का हाथ मांगने के लिए भेजा। महामंत्री के मुख से अकल्पित प्रस्ताव सुनकर सेठ की प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने इस संदर्भ में रूपली की राय पूछी। रूपली के प्रस्ताव पर महामंत्री ने उससे भेंट की। रूपली ने कहा, मंत्रीवर! मेरा विवाह मेरे धर्मपिता की इच्छा पर निर्भर है। यदि वे मेरा हाथ राजा के हाथ में देना चाहें तो इसमें मुझे आपत्ति नहीं है। परन्तु राजा मुझसे विवाह करने को उत्सुक हैं तो उन्हें मेरी कुछ शर्ते माननी होंगी। प्रधानमंत्री के पूछने पर रूपली ने अपनी शर्ते बताईं-राजा को मेरे धर्मपिता को नगर सेठ का ... जैन चरित्र कोश ... -- 497 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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