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________________ इस चिन्तन से राजा यशोधर का हृदय परिग्रह से मुक्त होने के लिए उतावला बन गया । उसने अपने तीनों पुत्रों से अपना निर्णय सुना दिया कि वह शीघ्रातिशीघ्र प्रव्रजित होना चाहता है । अनन्तवीर्य और श्रीधर भी पिता के साथ ही प्रव्रजित होने के लिए तत्पर हो गए । राजा को लगा कि अनन्तवीर्य का संकल्प तो सुदृढ़ है पर श्रीधर का संकल्प भावावेग का परिणाम है। राजा ने श्रीधर को समझाया कि वह गृहस्थधर्म का पालन करे और राजपद स्वीकार करे। पर श्रीधर उसके लिए तैयार नहीं हुआ । आखिर प्रियचन्द्र का राजतिलक करके राजा यशोधर अपने पुत्रों - अनन्तवीर्य और श्रीधर के साथ प्रव्रजित हो गए। निरतिचार संयम की आराधना से मुनि यशोधर केवलज्ञान अर्जित कर मोक्ष पधारे। अनन्तवीर्य कठोर तप और संयम की आराधना से सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बने । मुनि श्रीधर विभिन्न प्रकार की तपश्चर्याएं करते हुए श्री पर्वत पर साधनाशील थे । प्रियचन्द्र ने न्याय और नीति से शासन किया । पर निःसंतान अवस्था में ही सर्प द्वारा डस लिए जाने से उसकी मृत्यु हो गई। सिंहासन सूना हो गया। महामंत्री श्रीपर्वत पर साधनारत मुनि श्रीधर के पास पहुंच और उसने मुनि को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तथा साथ ही प्रार्थना भी की कि वे पधारें और सिंहासन की शोभा बढ़ाएं। श्रीधर मुनि का चित्त साधना में सुस्थिर नहीं बन पाया था। मंत्री का आमंत्रण उसके लिए संसार में पुनर्प्रवेश का सरल उपाय बन गया। उसने प्रव्रज्या का परित्याग कर दिया और शासन सूत्र संभाल लिया । जिस समय श्रीधर के मस्तक पर राजमुकुट रखा गया उस समय उसका सिर मुण्डित था । इसलिए वह वंश मुण्डित वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्रीधर भोगोपभोगों में इस कद्र गृद्ध बना कि उसका अध्यात्मपक्ष शून्य हो गया। संयम से च्युत होने के कारण वह अनन्त संसार में भटक गया। मुंडित वंश में अनेक प्रभावशाली राजा हुए। - आचार्य हरिषेण, बृहत्कथा कोष, भाग 1 (क) यशोभद्र (आचार्य) तीर्थंकर महावीर की अर्हत् परम्परा के पंचम पट्टधर आचार्य और श्रुतकेवली परम्परा के तृतीय श्रुतकेवली । वे जन्मना ब्राह्मण थे और वेद-वेदांगों व दर्शन शास्त्र के समर्थ विद्वान थे । नन्दी सूत्र के अनुसार यशोभद्र कायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। वी.नि. 36 में उनका जन्म हुआ था और 22 वर्ष की अवस्था में शय्यंभवाचार्य के पास वे दीक्षित हुए। चौदह वर्षों तक शय्यंभवाचार्य के सान्निध्य में रहकर उन्होंने चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि को हृदयंगम किया । शय्यंभवाचार्य के देवलोक के पश्चात् वी. नि. 98 में वे युग-प्रधान आचार्य पद पर विराजमान हुए और पांच दशक तक इस विशाल दायित्व का कुशलता पूर्वक निर्वाह करते हुए उन्होंने मगध, अंग और विदेह जनपदों में जैन धर्म का प्रभूत प्रचार-प्रसार कर जिनशासन की महती प्रभावना की । वी.नि. 148 में 86 वर्ष की अवस्था में उनका देवलोक हुआ । आचार्य यशोभद्र के अनेक शिष्यों में संभूतविजय और भद्रबाहु - ये दो परम मेधावी और श्रुतधर शिष्य थे । यशोभद्र के स्वर्ग गमन के पश्चात् इन्हीं दो महामुनियों ने जिनशासन के नेतृत्व का दायित्व संवहन किया - नन्दी सूत्र / परिशिष्ट पर्व, सर्ग -6 था। (ख) यशोभद्र (मुनि) आचार्य संभूतविजय के एक शिष्य । (क) यशोमती सगर चक्रवर्ती की जननी । (देखिए - सगर चक्रवर्ती) ••• जैन चरित्र कोश - - कल्पसूत्र स्थविरावली *** 471
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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