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________________ परन्तु राजा द्वारा दीक्षा के लिए सुनिश्चित किए गए दिन से एक दिन पूर्व ही उसकी पत्नी नयनावली ने विष देकर उसकी हत्या कर दी। चन्द्रमती पुत्र विरह को सह न सकी और हृदयाघात से उसकी भी मृत्यु हो गई। यशोधर और चन्द्रमती ने आटे के मुर्गे की बलि दी थी, उस पाप के फल के रूप में वे दोनों तिर्यंच योनि में पैदा हुए। दोनों ने निरन्तर छह भव पशु योनि के किए और प्रत्येक बार अपने ही पुत्र गुणधर के हाथों से मारे गए। आठवें भव में वे दोनों पुनः मनुष्य भव को प्राप्त हुए। कर्मों की विचित्रता प्रकट हुई और वे दोनों गुणधर की रानी जयावली के गर्भ से पुत्र और पुत्री के रूप में जन्मे। पूर्व जन्म के पुत्र और माता वर्तमान भव में भाई और बहन बने। गुणधर यशोधर का पुत्र और चन्द्रमती का पौत्र था, पर वर्तमान भव में वह यशोधर और चन्द्रमती का पिता था। कर्म की यही विचित्रता है जिसे संसारी प्राणी जान नही पाते हैं। गुणधर ने पुत्र का नाम अभयरुचि और पुत्री का नाम अभयमती रखा। कालक्रम से ये दोनों बड़े हुए और शिक्षादि में प्रवीण बन गए। अभयरुचि को गुणधर ने युवराज पद पर अभिषिक्त किया। ___ एक बार गुणधर शिकार के लिए वन में गया। वहां एक वृक्ष के नीचे सुदत्त मुनि ध्यानमग्न थे। मुनि दर्शन को गुणधर ने अपने लिए अपशकुन माना और अपने शिकारी कुत्ते मुनि पर छोड़ दिए। पर कुत्ते मुनि के निकट पहुंचते ही क्रोध और हिंसा के भाव से शून्य हो गए। इससे राजा गुणधर का दर्प गल गया। उसके हृदय में भय का संचार हो गया। मुनि के चरणों पर अवनत बनकर उसने क्षमा मांगी। मुनि ने उसे उपदेश दिया जिसे सुनकर राजा विरक्त हो गया। उसने वहीं पर दीक्षित होने का निश्चय कर लिया और सेवकों से संदेश भेजकर अपने परिवार को वन में ही बुला लिया। राजकुमार अभयरुचि और राजकुमारी अभयमती भी मुनि के निकट आए। मुनि दर्शन से ही दोनों को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अपने पूर्वभवों को देखकर दोनों अचेत हो गए। शीतलोपचार से दोनों स्वस्थ हुए तो गुणधर ने मुनि से पुत्र-पुत्री के अचेत हो जाने का कारण पूछा। मुनि ने उनके विगत सात भवों की कथा कह सुनाई। कर्मों की विचित्रता सुन सभी हैरान हो गए। आखिर गुणधर, अभयरुचि और अभयमती-तीनों ने दीक्षा धारण कर ली और तप व संयम का निरतिचार रूप से पालन करते हुए विचरण करने लगे। राजपुर नरेश मारिदत्त एक बलिप्रिय राजा था। किसी समय उसने एक लाख प्राणी युगल की बलि के लिए इतने ही प्राणियों को पिंजरों में बन्द किया था। अभयरुचि मुनि के उपदेश से राजा मारिदत्त हिंसा के गर्त से निकल कर अहिंसक बना और सभी प्राणियों को उसने मुक्त कर दिया। अभयरुचि मुनि (यशोधर) और अभयमती साध्वी (चन्द्रमती) विशुद्ध चारित्र का पालन कर निर्वाण को उपलब्ध हुए। -यशोधर चरित्र-(आ. माणिक्यसिंहसूरिकृत) (ग) यशोधर (राजा) ___ वेल्लूर नगर का राजा। उसके तीन पुत्र थे-अनन्तवीर्य, श्रीधर और प्रियचन्द्र। एक बार राजा अपने तीनों युवा पुत्रों के साथ अपने महल की छत पर टहल रहा था। उसकी दृष्टि आकाश पर स्थिर हो गई। कुछ समय पूर्व ही वर्षा हुई थी। वर्षा जल से रिक्त हुए श्वेत और शुभ्र मेघ आकाश पर विचरण कर रहे थे। मेघों। की शुभ्रता देखकर राजा का चिन्तन आत्मोन्मुखी बन गया। वह सोचने लगा, जब मेघ पानी से भरे होते हैं तो उनका रंग काला हो जाता है और जब पानी बरस जाता है तो उनका रंग शुभ्र और धवल हो जाता है। यही अवस्था आत्मा की है। परिग्रह के कारण आत्मा काली और भारी हो जाती है, और परिग्रह से मुक्त होने पर आत्मा शुभ्र और निर्भार हो जाती है। परिग्रह ही आत्मा की कलुषता का मूल कारण है। ...470 .. ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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