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________________ धीरे-धीरे राजा पर युवा योगिनी का ऐसा रंग चढ़ा कि राजा ने उसे न केवल दरबार में सम्मानित आसन प्रदान किया बल्कि राज्य सम्बन्धी और वैयक्तिक समस्त निर्णयों में उसकी अनुमति और राय लेने लगा । अपनी चुनौती को पूर्ण करने के लिए मानवती ने एक योजना बनाई। उसने एक कुशल विधि से मुंगीपट्टण नगर की राजकुमारी रत्नवती के हृदय में राजा मानतुंग के प्रति आकर्षण जगा दिया। रत्नवती ने अपनी माता से कहकर अपना लगन मानतुंग से सुनिश्चित करवा लिया। मानतुंग रत्नवती से विवाह करने के लिए जाने लगे तो उन्होंने योगिनी से प्रार्थना करके उसे भी अपने साथ चलने के लिए मना लिया। मानवती का प्रत्येक दांव उसके अनुकूल पड़ रहा था । योगिनी रूपधारी मानवती एक अलग रथ में बैठकर राजा की बारात के साथ रवाना हुई । मुंगीपट्टण और उज्जयिनी के मध्य की दूरी काफी थी। दस दिन की यात्रा थी। पांच दिवसी पर बारात एक बीहड़ जंगल में पहुंची। वहां एक मधुर जल की विशाल वापिका देखकर राजा ने विश्राम का निश्चय किया । योगिनी वेशधारी मानवती ने इस स्थान को उपयुक्त जानकर एक विद्याधर- कन्या का वेश धारण किया और वृक्षों के झुरमुटे में जाकर मधुर तान छेड़ दी । तान में बंधकर मानतुंग उस बाला के पास पहुंचा। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसने उससे विवाह का प्रस्ताव किया। मानवती ने राजा को अपने रूपजाल में फंसाकर विवेकान्ध बना दिया। उसने राजा से वह सब कुछ करवा लिया जिसके लिए राजा ने उसे चुनौती दी थी। राजा ने विद्याधरी वेशी मानवती का चरणोदक भी ग्रहण किया, उसके लिए वह घोड़ा भी बना और उसे अपने हाथों पर भी चलाया। बाद में मुंगीपट्टण पहुंचकर भी मानवती ने अपने बुद्धि चातुर्य से राजा को अपने वश में किया। मानवती ने कई वेश बदले, और प्रत्येक वेश में उसने अपने आपको ऐसी कुशलता से प्रस्तुत किया कि राजा उसे अलग-अलग स्त्रियों के रूप में मानता रहा । अपने अभियान में सफल होकर मानवती उज्जयिनी आ गई। स्थितियां ऐसी निर्मित हुईं कि मानतुंग दस मास तक उज्जयिनी नहीं लौट सका। इसी अवधि में मानवती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। राजा को इसकी सूचना मिली तो उज्जयिनी पहुंचते ही वह मानवती के पास एक स्तंभ वाले महल में पहुंचा क्रोध में राजा ने मानवती के पलंग पर पाद प्रहार किया। पलंग हटते ही राजा को सुरंग दिखाई दी। उसने सुरंग में प्रवेश किया तो उसे वह वीणा मिली जो योगिनी सदैव अपने साथ रखती थी । वीणा को खोला तो उसमें वे वस्त्र निकले जो विभिन्न वेश धारण करते हुए मानवती ने धारण किए थे। समस्त स्थितियां स्वतः स्पष्ट हो गईं। मानतुंग का मान गल गया। मानवती को कण्ठ से लगाकर उसने नारी की बुद्धिमत्ता की महत्ता को स्वीकार कर लिया । मानवती ने भी पति से अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए अंतिम अवस्था में संयम पालकर राजा और रानी ने सद्गति प्राप्त की । - मानतुंग मानवती रास मालुगा उज्जयिनी निवासी एक सदाचारी ब्राह्मण अम्बड़ ऋषि की पत्नी और निम्बक की माता । ( देखिए निम्बक) मित्र राजा मणिचयिका नगरी नरेश। एक बार पुण्ययोग से संभूतिविजय नामक एक मासोपवासी अणगार राजा जैन चरित्र कोश ••• *** 444
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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