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________________ कहते हैं कि प्रारंभ में मानतुंग ने दिगम्बर परम्परा में दीक्षा ली थी। बाद में बहन की प्रेरणा से वे श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित हुए। श्रुत के वे पारगामी पण्डित बने। संस्कृत भाषा का तलस्पर्शी अध्ययन उन्होंने किया। पर उनके ज्ञान का लक्ष्य लोकरंजन न होकर आत्मान्वेषण से सम्बद्ध था। उस समय वाराणसी में हर्षदेव राजा का शासन था। हर्षदेव एक विद्वान राजा था। विद्वानों को विशेष मान भी देता था। मयूर और बाण जैसे विद्वान कवि उसकी सभा में प्रतिष्ठित सभासद थे। एक बार बाण को कुष्ठ हो गया। उसने सूर्यस्तुति में पद्यात्मक शतक की रचना की, जिससे वह कुष्ठ मुक्त हो गया। मयूर ने चण्डी की आराधना से अपने कटे हुए अंगों को उचित स्थान पर स्थापित कर लिया। उनके उक्त चमत्कारों से हर्षदेव गद्गद था और उनका विशेष मान करता था। हर्षदेव का मन्त्री जैन था। उसने राजा से आचार्य मानतुंग के गंभीर ज्ञान की चर्चा की और उनकी दिव्य सिद्धियों की प्रशंसा की। राजा आचार्य श्री की ओर आकर्षित हुआ। उसने आचार्य श्री को दरबार में आमंत्रित किया और चमत्कार दर्शन की प्रार्थना की। आचार्य श्री ने कहा, मेरा धर्म चमत्कार प्रदर्शन की आज्ञा नहीं देता है। श्रमण का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की साधना है, उसी में मैं संलग्न हूँ। हर्षदेव आचार्य श्री के चमत्कार दर्शन को देखने को उत्सुक था। उसके लिए उसने अचार्य श्री को गिरफ्तार करने का उपक्रम किया। आचार्य श्री को लौह शृंखलाओं में जकड़कर अन्धेरी कोठरी में डाल दिया गया और द्वार पर 48 ताले जड़ दिए गए। आचार्य श्री मानतुंग अन्धेरी कारा में भी आनन्दित थे। समय का सदुपयोग उन्होंने आदिनाथ भगवान की स्तुति करने में किया। वे पद्यात्मक छन्दों में आदीश्वर प्रभु की स्तुति करने लगे। भक्ति रस में आकण्ठ पैठकर आचार्य श्री ने एक-एक पद का सृजन और गायन प्रारंभ किया। प्रत्येक पद के गायन पर एक-एक ताला टूटता गया। अड़तालीस पदों/श्लोकों की रचना के साथ अड़तालीस ही ताले टूट गए। आचार्य श्री शान्त प्रशान्त गति से राजसभा में पहुंचे। देखकर राजा हर्षदेव दंग रह गया। वह आचार्य श्री को अनन्य उपासक और जैन धर्मी बन गया। 'भक्तामर स्तोत्र' आचार्य मानतुंग की भक्तिरस की अद्भुत और कालजयी रचना है। उसके अतिरिक्त 'भयहर स्तोत्र' भी उनकी प्रसिद्ध और भय का हरण करने वाली स्तुति है। आचार्य मानतुंग एक बार रुग्ण हो गए थे। धरणेन्द्र की प्रेरणा पर उन्होंने उक्त स्तोत्र की रचना की और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया। मानतुंगाचार्य वी.नि. की 12वीं शताब्दी के आचार्य थे। -प्रभावक चरित्र मानदेव (आचार्य) वी.नि. की तेरहवीं-चौदहवीं सदी के एक आचार्य। उनके गुरु का नाम प्रद्योतन सूरि था। आचार्य मानदेव सूरि का जन्म नाडोल नगर में हुआ। श्रेष्ठी जिनदत्त और धारिणी उनके पिता-माता थे। दीक्षा धारण कर मानदेव ने आगमों का अध्ययन किया। मानदेव का शरीर बलिष्ठ और सौन्दर्य सम्पन्न था। सर्वविध योग्य देखकर गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर नियुक्त किया। गुरु के मन में यह संशय उत्पन्न हुआ कि-सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी मानदेव क्या आचार्य पद का सम्मान प्राप्त कर संयम में स्थिर रह सकेगा? गुरु के संशय को अपनी प्रज्ञा द्वारा अनुभव करके मानदेव ने गुरु चरणों की साक्षी से प्रतिज्ञा की-मैं प्रत्याख्यान करता हूं, अर्थात् दूध, दही, घृत, मधु और गुड़ का आसेवन जीवन भर नहीं करूंगा। शिष्य की इस दृढ़ प्रतिज्ञा से गुरु का संशय नष्ट हो गया। आचार्य मानदेव एक तपस्वी और कठोर आचार का पालन करने वाले मुनि थे। तपः प्रभाव से उन्हें ... 442 . ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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