SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (क) महेश्वरदत्त कलिंग देश की राजधानी कंचनपुर का एक श्रेष्ठि-पुत्र, जो परम साहसी, शूरवीर और दृढ़ प्रतिज्ञयी था। एक बार उसने एक मुनि का उपदेश सुनकर दया धर्म को अपने जीवन में धारण किया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह अपना सर्वस्व अर्पित करके भी आर्त प्राणी के प्राणों की रक्षा करेगा। एक बार उसने नगर के चौराहे पर एक व्याध को एक हंस बेचते हुए देखा। हंस की आर्त अवस्था को देखकर महेश्वरदत्त का हृदय करुणा से भर गया। उसने अपने नियम के अनुसार उस हंस को एक लाख स्वर्णमुद्राओं में खरीद लिया। हंस को उसने अपने पास रख लिया। वह प्रतिदिन उसे खाने के लिए मोती देता। कुछ ही दिनों में हंस ने उस घर के काफी मोती खा लिए। एक दिन महेश्वरदत्त के पिता ने मोतियों की सार-संभाल की तो मोतियों को न पाकर वह मूर्छित हो गया। होश आने पर और वस्तुस्थिति से परिचित बनने पर उसे बहुत क्रोध आया। उसने महेश्वरदत्त को तिरस्कृत करके अपने घर से निकाल दिया। . ___ घर से निकाल दिए जाने पर भी महेश्वरदत्त ने अपने स्वीकृत व्रत को खण्डित नहीं बनने दिया। उसने कठिन से कठिन कष्ट झेलकर भी अपने व्रत को सुरक्षित बनाए रखा। देवों ने भी उसके अभय-व्रत की परीक्षा ली और उसे अपने पथ पर अविचल पाया। एक देव ने प्रसन्न होकर महेश्वरदत्त को सात दिव्य रत्न दिए। उन रत्नों की दिव्यता के बल पर महेश्वरदत्त ने सुख और गौरवपूर्ण जीवन जीया। वह जहां भी गया समृद्धि और प्रशस्ति उसकी छाया बनकर उसके साथ रहीं। उसने अपने जीवन काल में अनेक राजकुमारियों और कुलीन कन्याओं से पाणिग्रहण किया और अनेक देशों का राज्य पाया। अंतिम अवस्था में मुनित्व साधना को साधकर वह स्वर्ग में गया जहां से च्यवन के बाद मानव-भव प्राप्त करके सिद्धि को प्राप्त करेगा। (ख) महेश्वरदत्त ___एक युवक, जिसके जीवन में कई दुर्गुण थे। धर्म, कर्म, पुण्य, पाप आदि का उसे किंचित् मात्र भी बोध नहीं था। उसके माता-पिता भी उसी के समान अनार्यधर्मी थे। एक बार वृद्ध पिता रुग्ण हो गया। मृत्यु-शैया पर लेटे हुए उसने महेश्वरदत्त को सीख देते हुए कहा, पुत्र! मेरे श्राद्ध पर एक पाडे को मारकर बन्धु-बान्धवों को भोजन कराना। यह हमारी कुल परम्परा है। ऐसी शिक्षा देते ही पिता का देहान्त हो गया। कुछ समय बाद महेश्वरदत्त की माता भी गृह-परिवार की ममता में बंधी रहकर मृत्यु को प्राप्त हो गई। गांगिला महेश्वरदत्त की पत्नी थी। वह कुलटा थी। किसी समय महेश्वरदत्त ने एक पुरुष को अपनी पत्नी के साथ देखा। उसका रक्त खौल उठा। उसने उस पुरुष का वध कर दिया। वह पुरुष मरकर गांगिला की कुक्षी में ही पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उधर महेश्वरदत्त का पिता मरकर उसी के घर में भैंस के गर्भ से पाडे के रूप में जन्मा। महेश्वरदत्त की माता एक कुतिया के रूप में जन्मी। निश्चित तिथि पर महेश्वरदत्त को अपने पिता की शिक्षा का स्मरण हुआ। उसने अपने घर में जन्मे पाडे के वध करने का विचार किया और वैसा ही किया भी। बन्धु-बान्धवों को भोज दिया। वह कुतिया भी कुछ पाने की चाह में वहां पर आई। महेश्वरदत्त ने कुतिया को भगाने के लिए उस पर दण्डप्रहार किया। दण्डप्रहार से कुतिया की मृत्यु हो गई। उसी समय एक महात्मा उधर से गुजर रहे थे। वे भूत-भविष्य के ज्ञाता थे। महेश्वरदत्त के दण्ड प्रहार से कुतिया की करुण-मृत्यु देखकर दयार्द्र बन गए। उनके मुंह से सहसा ये शब्द फूट पड़े-अकार्य! घोर अकार्य! ... 438 -... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy