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________________ हो गया। आचार्य सुहस्ती के लौट जाने के पश्चात् उसने अपने परिवार के सदस्यों को समझाया-आर्य महागिरि अथवा उनके तुल्य महान तपस्वी श्रमण भिक्षार्थ पधारें तो उन्हें विशिष्ट पदार्थों को प्रक्षेप योग्य बताकर भक्ति भाव से प्रदान करें। वैसा करने से महान यश और पुण्य की प्राप्ति होगी। संयोग से दूसरे ही दिन आचार्य महागिरि भिक्षा के लिए वसुभूति के घर आए। पारिवारिक सदस्य जागरूक थे। उन्होंने गरिष्ठ मोदकों को प्रक्षेप आहार बताकर अति भक्ति भाव से आचार्य के सम्मुख प्रस्तुत किया। आचार्य श्री विशिष्ट अभिग्रही थे। प्रक्षेप योग्य आहार उनके लिए ग्राह्य था। पर मोदकों का आहार प्रक्षेप योग्य कैसे संभव है ? इस आन्तरिक प्रश्नचिन्ह ने मुनिवर को चिन्तन के लिए प्रेरित किया। क्षणभर रुककर उन्होंने अपने ज्ञानोपयोग से वस्तुस्थिति का परिचय प्राप्त कर लिया। विगत दिवस का चित्र उनकी स्मृति में ताजा हो गया। आहार को अपने लिए अकल्प्य मानकर आचार्य श्री रिक्त ही लौट गए। कालान्तर में आचार्य महागिरि आचार्य सुहस्ती से मिले तो उन्होंने उन्हें उपालंभ दिया और कहा, सुहस्ति! मेरे अभिग्रह को तुमने श्रेष्ठी वसुभूति के समक्ष प्रकट कर मेरे लिए अनेषणीय आहार को ग्रहण करने की स्थिति निर्मित कर दी थी। आचार्य सुहस्ती को अपनी भूल का परिज्ञान हुआ। वे गुरु तुल्य आचार्य महागिरि के चरणों पर नत हो गए और भूल के लिए क्षमापना करने लगे। आचार्य महागिरि ने संघ संचालन के साथ-साथ अन्तिम वय में जिनकल्प तुल्य साधना कर एक आदर्श प्रस्तुत किया। असंख्य जीवों के लिए वे कल्याण का द्वार बने और वी.नि. 245 में लगभग 100 वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी बने। -नन्दी सूत्र / -कल्पसूत्र स्थविरावली / -परिशिष्ट पर्व । -उपदेश माला, विशेषवृत्ति, पत्रांक 369-370 महाचन्द कुमार चम्पानगरी के राजा महाराज दत्त का पुत्र और महारानी रक्तवती का आत्मज, एक रूप गुण सम्पन्न राजकुमार। युवावस्था में युवराज महाचन्द का विवाह श्रीकान्ता प्रमुख पांच सौ राजकन्याओं के साथ किया गया। __ एक बार तीर्थंकर महावीर चम्पानगरी के बाह्य भाग में स्थित पूर्णभद्र नामक राजोद्यान में पधारे। प्रभु के दर्शन-वन्दन के लिए प्रजा के साथ-साथ युवराज महाचन्द कुमार भी गया। प्रभु की अमृतोपम धर्म देशना सुनकर युवराज की धर्मरुचि में अतिशय रूप से वृद्धि हुई। उसने भगवान से श्रावक धर्म अंगीकार किया। राजा, प्रजा और युवराज के अपने-अपने स्थानों पर लौट जाने के पश्चात् आर्य गणधर गौतम ने भगवान महावीर स्वामी से पूछा, भगवन्! युवराज महाचन्द ने ऐसे क्या शुभ पुण्य कर्म किए जिनके फलस्वरूप उसे देवोपम रूप और समृद्धि का समागम प्राप्त हुआ? भगवान महावीर ने महाचन्द का पूर्वभव सुनाते हुए फरमाया-गौतम! चिकित्सिका नाम की एक नगरी थी। वहां पर राजा जितशत्रु राज्य करते थे। एक बार धर्मवीर्य नामक एक मासखमण के तपस्वी अणगार उसके राजमहल में पधारे। महाराज जितशत्रु ने उत्कृष्ट भावों से अणगार को आहारादि से प्रतिलाभित किया। उससे उन्होंने महान पुण्यों का अर्जन किया। कालक्रम से आयुष्य पूर्ण कर महाराज जितशत्रु का जीव ही यहां महाचंद के रूप में जन्मा है। कालान्तर में युवराज आर्हती प्रव्रज्या धारण कर मोक्ष में जाएगा। .0426 ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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