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________________ महाकृष्णा इनका परिचय काली के समान है। विशेष इतना है कि इन्होंने लघुसर्वतोभद्र तप किया। इस तप की चार परिपाटियों में एक वर्ष एक मास और दस दिन का समय लगता है। इसकी प्रत्येक परिपाटी सौ दिन की होती है जिसमें पच्चीस दिन पारणे के तथा शेष पचहतर दिन तपस्या के होते हैं। अन्त में महाकृष्णा आर्या मासिक संलेखना के साथ सिद्ध हुई। __ -अन्तगडसूत्र वर्ग 8, अध्ययन 6 महागिरि (आचार्य) भगवान महावीर की पट्ट परम्परा के नौवें पट्टधर आचार्य । उनके शिक्षा और दीक्षा गुरु आचार्य स्थूलभद्र थे। आर्य महागिरि का जन्म वी.नि. 145 में हुआ था। वी.नि. 175 में आचार्य स्थूलभद्र से प्रतिबोध पाकर वे मुनि जीवन में प्रविष्ट हुए। गुरु की सन्निधि में बैठकर उन्होंने दश पूर्वो का ज्ञान हृदयंगम किया । आचार्य स्थूलभद्र को अंतिम अवस्था में एक और सुपात्र शिष्य प्राप्त हुए जिनका नाम था आर्य सुहस्ती। आचार्य स्थूलभद्र ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती-इन दोनों को आचार्य पद प्रदान किया। दीक्षा पर्याय में तथा श्रुताराधना में ज्येष्ठ होने के कारण आचार्य स्थूलभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् आर्य महागिरि आचार्य पाट पर आरूढ़ हुए। आचार्य सुहस्ती उनका गुरुतुल्य मान करते और उनके आदेशानुसार विचरते । आचार्य महागिरि ने विशाल संघ का संचालन अत्यन्त कुशलता से किया। उनके धर्मसंघ में अनेक भव्य आत्माओं ने प्रवेश कर ज्ञान और दर्शन की आराधना की। उनके अपने शिष्यों की संख्या कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आठ थी, जिनकी क्रमिक नामावली निम्न प्रकारेण है-(1) उत्तर (2) बलिस्सह (3) धनाढ्य (4) श्री आढ्य (5) कौण्डिन्य (6) नाग (7) नागमित्र (8) रोहगुप्त। इनमें से प्रथम दो शिष्य उत्तर और बलिस्सह विशेष प्रभावशाली थे और उनके नामों पर उत्तर बलिस्सह गण भी स्थापित हुए। अष्टम शिष्य रोहगुप्त निन्हव हुए जिनसे त्रैराशिक मत प्रगट हुआ। ___आचार्य महागिरि ने अन्तिम अवस्था में संघीय दायित्व आचार्य सुहस्ती को प्रदान कर दिए और उन्होंने एकाकी विचरण कर जिनकल्प तुल्य विशिष्ट अभिग्रहों को अपनी साधना का अभिन्न अंग बनाया। वे नगर से बाहर श्मशानों में ठहरते और कठोर तप करते। भिक्षा में वे प्रक्षेप योग्य आहार ग्रहण करते। ऐसे कई वर्षों तक उन्होंने कठोर तपश्चर्या की। उनकी चर्या की कठोरता और अभिग्रह वृत्ति की प्रकर्षता से सम्बन्धित एक घटनाक्रम इस प्रकार है___पाटलीपुत्र नगर में आर्य सुहस्ती श्रेष्ठी वसुभूति की प्रार्थना पर उसके पारिवारिक सदस्यों को बोध देने के लिए उसके घर पधारे। आचार्य श्री वहां बैठकर श्रेष्ठि-परिवार को प्रवचन देने लगे। संयोग से उसी समय दृढ़ अभिग्रही आचार्य महागिरि भिक्षार्थ वहां पधारे। आचार्य महागिरि को देखकर भक्ति भाव से भावित बनकर आचार्य सुहस्ती अपने आसन से उठ खड़े हुए और प्रणत होकर उन्हें वन्दन करने लगे। आचार्य महागिरि के लौट जाने के बाद श्रेष्ठी वसुभूति ने आश्चर्य चकित होते हुए आचार्य सुहस्ती से पूछा, हे महायशस्वी ! हे परम श्रुतधर! क्या आपके भी कोई गुरु हैं? आचार्य सुहस्ती ने कहा, ये महाअभिग्रही मुनिराज मेरे गुरु हैं। इनकी तपस्विता अद्भुत है। प्रक्षेप योग्य आहार पर ये अपना जीवन चलाते हैं। उसकी अनुपलब्धि पर सहज तप का अवसर मानकर आनन्द मानते हैं। आचार्य सुहस्ती के मुख से आचार्य महागिरि की तपस्विता का आख्यान सुनकर श्रेष्ठी वसुभूति चमत्कृत ... जैन चरित्र कोश ... - 425 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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