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________________ नेतृत्व में 500 मेधावी मुनि दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए आचार्य भद्रबाहु के चरणों में नेपाल पहुंचे। महाप्राण ध्यान साधना से अवशिष्ट समय में आचार्य श्री ने दृष्टिवाद की वाचना देनी प्रारंभ की। एक तो दृष्टिवाद का रुक्ष विषय और दूसरे वाचना क्रम में अति मन्दता से अधिकांश श्रमणों का उत्साह विलीन हो गया। 499 श्रमण अध्ययन को मध्य में ही छोड़कर लौट गए। परन्तु स्थूलभद्र का धैर्य अकंप और सुस्थिर था। आठ वर्षों के निरन्तर अध्ययन से उन्होंने आठ अंगों का अध्ययन हृदयंगम कर लिया। आठ वर्ष की इस अवधि में पठन और पाठन के अतिरिक्त आचार्य भद्रबाहु ने मुनि स्थूलभद्र से अन्य कोई वार्ता नहीं की । आठ वर्ष के पश्चात् उन्होंने स्थूलभद्र से एक दिन पूछा, मुने! आहार-व्यवहार और अध्ययन में तुम्हें कोई क्लेश तो नहीं रहा है ? स्थूलभद्र ने कहा, भगवन्! मुझे किसी प्रकार का क्लेश नहीं है । परन्तु भगवन् ! मैं जानना चाहता हूँ कि इन आठ वर्षों की अवधि में मैंने कितना ज्ञान ग्रहण किया है और अभी कितना ज्ञान मुझे और ग्रहण करना है ? आचार्य भद्रबाहु ने कहा, मुनिवर ! अभी तक तुमने जो सीखा है, वह सरसों के कण जितना है और जो शेष है, वह मेरु पर्वत के सदृश है। यह सुनकर भी स्थूलभद्र का धैर्य अचल रहा। उन्होंने कहा, भगवन्! आपके उत्तर से मैं अधीर नहीं बना हूँ, पर सोचता हूँ कि आप श्री जीवन के संध्याकाल में हैं और वाचना का प्रवाह मन्दतापूर्वक चल रहा है, फिर इतनी विशाल ज्ञानराशि किस प्रकार ग्रहण की जा सकेगी ? आचार्य भद्रबाहु ने कहा, मुने ! मेरी साधना संपूर्ण प्रायः हो रही है, अब मैं अहर्निश अधिकाधिक वाचना दूंगा। इससे स्थूलभद्र संतुष्ट हो गए और पूरे मनोयोग से दृष्टिवाद का अध्ययन-मनन करने लगे। एक बार यक्षा आदि भगिनी साध्वियों को स्थूलभद्र ने स्वयं को सिंह रूप में दिखाकर चमत्कार प्रदर्शन किया। इससे आचार्य भद्रबाहु गंभीर हो गए। उन्होंने आगे वाचना देने से इन्कार कर दिया और कहा, वत्स ! लब्धि प्रदर्शित कर ज्ञान-प्राप्ति के लिए अपनी अपात्रता तुमने प्रमाणित कर दी है। स्थूलभद्र को अपनी भूल अनुभव हुई। उन्होंने आचार्य देव से क्षमापना की, पुनः पुनः अनुताप - पश्चात्ताप किया। खिन्न स्वर में कहा, भगवन् ! यह मेरी प्रथम भूल है और यही अन्तिम भी सिद्ध होगी, श्रुत-विच्छिन्नता का कारण मैं नहीं बनना चाहता। श्री संघ ने भी आचार्य भद्रबाहु से पुनः पुनः प्रार्थना की कि वे स्थूलभद्र को क्षमा करे दें और वाचना का क्रम पुनः प्रारंभ कर दें। आखिर आचार्य श्री ने कहा, स्थूलभद्र की भूल ही वाचना स्थगन में कारण नहीं है। एक अन्य कारण भी है। सुनो ! स्थूलभद्र की निष्ठा, मेधा और पराक्रमशीलता अद्वितीय है। उसने कोशा के बाहुपाश को तोड़कर उसे श्रमणोपासिका बनाया है और अमात्य जैसे पद को ठुकरा कर श्रमणत्व अंगीकार किया है। ऐसे परम पराक्रमी और धीर पुरुष से भी भूल हुई है, फिर आने वाले समय में तो साधकों का सत्व शिथि होता जाएगा। पात्रता के अभाव में श्रुत का दान श्रुत की आशातना है । इसी लक्ष्य को रखकर मैंने वाचना स्थगित की है । श्री संघ मौन हो गया। परन्तु स्थूलभद्र की अतिशय प्रार्थना पर आचार्य श्री ने शेष चार अंगों की शाब्दी वाचना दी। इस प्रकार स्थूलभद्र अर्थ की दृष्टि से दशपूर्वधर और शब्द की दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर बने। आचार्य भद्रबाहु ने चार छेद सूत्रों की रचना की। चार छेद सूत्र हैं - 1. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. बृहत्कल्प, 3. व्यवहार, 4. निशीथ । ••• जैन चरित्र कोश •• 379
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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