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________________ कितना अच्छा हो कि भगवान महावीर हमारे नगर में पधारें। इस बार जब भगवान यहां पधारेंगे तो मैं उनके श्री चरणों में आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार करूंगा। ____ पुण्ययोग से कुछ दिन बाद भगवान महावीर अपने शिष्य समुदाय के साथ सुघोष नगर में पधारे। अपनी भावनानुसार भद्रनंदी कुमार ने प्रभु चरणों में प्रव्रज्या धारण कर ली। विशुद्ध चारित्र का पालन कर वे उसी भव में मोक्ष के अधिकारी बने। -विपाकसूत्र, द्वि श्रु., अ.8 भद्रबाहु (आचार्य) भगवान महावीर की धर्म संघ-परम्परा के सातवें युग-प्रधान आचार्य। वे आचार्य यशोभद्र के शिष्य और आचार्य संभूतविजय के लघु गुरुभ्राता थे। आचार्य भद्रबाहु का जन्म वी.नि. 94 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भद्रबाहु सुरूप, आजानुभुज और सुदृढ़ शरीर-सम्पदा के स्वामी थे। वी.नि. 139 में 45 वर्ष की अवस्था में उन्होंने मुनि जीवन में प्रवेश किया। अपने गुरु आचार्य यशोभद्र जी से उन्होंने आगम साहित्य का पारायण किया और चतुर्दश पूर्वधर बने। आचार्य यशोभद्र ने अपने परम सुयोग्य दो शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया, जिनमें एक थे संभूतविजय और द्वितीय थे भद्रबाहु। आचार्य यशोभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् पहले संभूतविजय जी ने आचार्य पद का दायित्व संभाला और उनके स्वर्गवास के पश्चात् वी.नि. 156 में भद्रबाहु युगप्रधान आचार्य पाट पर विराजमान हुए। उन्होंने संघीय दायित्वों का पूरी सफलता से निर्वाह किया और जिनशासन के यश की चतुर्दिक अभिवृद्धि की। ___अन्तिम अवस्था में आचार्य भद्रबाहु महाप्राण ध्यान साधना के लिए नेपाल की गिरि- कन्दराओं में चले गए। उससे पूर्व देश में बारह वर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा था और अनेक श्रुतधर स्थविर काल-कवलित हो गए थे। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए संघ एकत्रित हुआ। पर उस समय आचार्य भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई भी चतुर्दश पूर्वधर मुनि जीवित नहीं था। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए संघ ने निर्णय किया कि उसके लिए विशिष्ट मेधावी मुनि आचार्य भद्रबाहु के पास जाकर दृष्टिवाद की वाचना लें। उसके लिए श्रमण संघाटक नेपाल में आचार्य भद्रबाहु के पास पहुंचा और विनीत भाव से आचार्य श्री को संघ का निर्णय सुनाया। आचार्य भद्रबाहु ने वाचना-व्यवस्था को अपनी आत्म-साधना में विक्षेप समझते हुए अस्वीकार कर दिया। श्रमण संघाटक लौट गया। संघ को वस्तुस्थिति का पता चला। इससे संघ में क्षोभ उत्पन्न हुआ। आगमनिधि की सुरक्षा का यक्ष प्रश्न था। संघ ने विनम्रतापूर्वक कठोर प्रश्नावली के साथ श्रमण संघाटक को पुनः नेपाल में आचार्य श्री के पास भेजा। श्रमण संघाटक ने आचार्य भद्रबाहु को प्रणत होकर विनम्र शब्दों में कहा, भगवन् ! संघ जानना चाहता है कि जो संघ की आज्ञा का उल्लंघन करे, उसे किस प्रायश्चित्त का विधान है? ___इस संघीय प्रश्न पर आचार्य भद्रबाहु गंभीर हो गए। उन्होंने कहा, संघ की आज्ञाओं को उल्लंघन करने वाले के लिए जो प्रायश्चित्त है, वह यह है कि उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इस पर श्रमण संघाटक ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, भगवन्! आपने संघ की आज्ञा को अस्वीकार किया है! महान श्रुतधर आचार्य भद्रबाह ने श्रमण संघाटक के समक्ष अपनी भूल स्वीकार की और अपने पूर्वनिर्णय को बदलते हुए फरमाया-मैं अपनी साधना के साथ-साथ यथासमय वाचनाएं देने को प्रस्तुत हूँ। आचार्य श्री की उक्त स्वीकृति से श्रमण संघाटक में उत्साह और हर्ष का संचार हो गया। श्रमण संघाटक ने लौटकर आचार्य श्री की स्वीकृति की सूचना श्रीसंघ को दी। संघ के आदेशानुसार आर्य स्थूलभद्र ...378 .. जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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