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________________ फुल्लचंद्र और माता का नाम प्रतिमा था। प्रारंभ में प्रतिमा निःसंतान थी और पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने अनेक उपक्रम किए थे। उसने वैरोट्या देवी की आराधना की। देवी ने प्रकट होकर प्रतिमा से कहा, जिनशासन नायक आचार्य नागहस्ती के चरणोदक का पान करने से तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। प्रतिमा उपाश्रय में पहुंची। प्रबल पुण्ययोग से उसे आचार्य नागहस्ती का चरण प्रक्षालित उदक सामने आते हुए एक मुनि से प्राप्त हो गया। भक्तिभाव से प्रतिमा ने उस जल का पान किया। तदनन्तर उसने आचार्य श्री के दर्शन किए। आचार्य श्री विशिष्ट श्रुतधर और अतिशय ज्ञानी थे। लक्षणों का अध्ययन कर उन्होंने प्रतिमा से कहा, तुम दस पुत्रों की माता बनोगी। तुम्हारे सभी पुत्र यशस्वी होंगे। प्रथम पुत्र का यश सम्पूर्ण भरतखण्ड में व्याप्त होगा। आचार्य देव की मनोहर वाणी सुनकर गद्गद-हृदया प्रतिमा ने प्रतिज्ञा की, भगवन् ! अपने प्रथम पुत्र को मैं जिनशासन की सेवा में समर्पित करूंगी। कालक्रम से प्रतिमा ने नाग का स्वप्न देखकर एक सुरूप और सर्वांग स्वस्थ पुत्ररत्न को जन्म दिया। स्वप्न में नाग दर्शन के कारण शिशु का नाम नागेन्द्र रखा गया। आठ वर्ष की अवस्था में बालक नागेन्द्र को उसकी माता ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आचार्य नागहस्ती के चरणों में अर्पित कर दिया। परम पुण्यशाली और मेधासम्पन्न बालक नागेन्द्र गुरु के सान्निध्य में दो वर्षों में ही व्याकरण, न्याय, दर्शन और आगमों के अधिकारी विद्वान बन गए। अपनी विलक्षण वाग्मिता और विनयवृत्ति से बालमुनि नागेन्द्र ने अपने गुरु आचार्य नागहस्ती को मन्त्रमुग्ध बना दिया। आचार्य श्री ने बालमुनि को पादलेप विद्या प्रदान की, जिससे बालमुनि गगन में यथेच्छ गमन करने में समर्थ हो गए। उसी के कारण नागेन्द्र ‘पादलिप्त' इस नाम से विश्रुत हुए। दस वर्ष की अवस्था में ही उन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया, जो उनकी विलक्षण और अद्भुत प्रतिभा व आचारनिष्ठा का प्रबल प्रमाण है। आचार्य पादलिप्त सूरि अनेक विद्याओं के कोष थे। विद्याओं और विद्वत्ता के बल पर उन्होंने जिनशासन की महान प्रभावना की। रंक से लेकर बड़े-बड़े राजाओं तक उनके भक्तों की संख्या अगणित थी। उस युग के कई बड़े-बड़े राजा आचार्य पादलिप्त सूरि के अनन्य उपासक थे। उनमें कुछ के नाम हैं-पाटलिपुत्र नरेश मुरुण्ड, मानखेटपुर नरेश कृष्ण, विलासपुर नरेश प्रजापति, पृथ्वीप्रतिष्ठानपुर नरेश शातवाहन और भखंच नगर नरेश। ___ आचार्य पादलिप्त के अनेक शिष्यों में नागार्जुन विशिष्ट मेधासम्पन्न शिष्य थे। आचार्य पादलिप्त और नागार्जन का प्रथम सम्पर्क सौराष्ट प्रदेश की ढंका नामक महापरी में हआ था। नागार्जन क्षत्रियपत्र था की माता का नाम सव्रता था। वह एक बद्धिमान और परिश्रमी बालक था। रसायन सिद्धि के प्रयोगों में पूर्ण कुशलता प्राप्त करना उसे अभीष्ट था। उसके लिए उसने सुदूर प्रदेशों और विजन वनों की सघन यात्राएं कीं। जड़ी-बूटियों को परखा। अत्यधिक श्रमपूर्ण साधना के पश्चात् वह रसायन सिद्धि में कुशल बन गया। जब वह ढंका नगरी में आया तो उसने आचार्य पादलिप्त के बारे में सुना। आचार्य पादलिप्त की गगनगामिनी लेपन विधि ने उसे चमत्कृत कर दिया। वह उस विद्या को आचार्य श्री से सीखने को उत्सुक हो गया। उसने आचार्य श्री से स्नेह-संबंध स्थापित करने के लिए एक रसकूपिका अपने शिष्य के हाथ आचार्यश्री के पास प्रेषित की। आचार्य श्री ने नागार्जुन द्वारा प्रेषित रसकूपिका को दीवार पर टकराकर चूर-चूर कर दिया। उन्होंने स्वयं एक पात्र में अपना प्रस्रवण भरकर नागार्जुन के शिष्य के हाथ में थमा दिया। इस पूरे उपक्रम पर नागार्जुन का शिष्य क्षुब्धचित्त हो गया। नागार्जुन के पास पहुंचकर उसने अथान्त घटित घटना उसे कह सुनाई। इससे नागार्जुन भी रोष से भर गया। आचार्य श्री द्वारा प्रेषित पात्र का ढक्कन उसने ... जैन चरित्र कोश ... -- 331 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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