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________________ नग्गति (प्रत्येक बुद्ध) ये प्रत्येकबुद्ध थे। प्रत्येकबुद्ध वह होता है, जो किसी घटना या दृश्य को देखकर आत्मबोध को प्राप्त कर लेता है। ये मुनि बनने से पूर्व गान्धार देश की राजधानी पुण्ड्रवर्धन नगर के राजा थे, नाम था सिंहरथ। सिंहरथ से नग्गति कैसे नाम पड़ा, इसके पीछे एक घटना है जो इस प्रकार है-राजा सिंहरथ को घुड़सवारी का बहुत शौक था। एक बार वक्रशिक्षित अश्व पर सवारी करने से अपने नगर से बहुत दूर जंगलों में भटक गए। घोड़ा थककर जहां ठहरा, वहां सामने एक पर्वत था और उस पर एक सुन्दर राजमहल था। कौतूहलवश राजा उस महल में गया। वहां एक सुन्दर और युवा राजकुमारी ने राजा का स्वागत किया। राजा के पूछने पर राजकुमारी ने अपना परिचय दिया कि वह वैताढ्य पर्वत के विद्याधर राजा दृढ़शक्ति की पुत्री है। एक दुष्ट विद्याधर उसका अपहरण कर उसे यहां ले आया। उसके भाई ने उस दुष्ट का पीछा किया। यहीं दोनों में परस्पर युद्ध हुआ और दोनों ने एक-दूसरे का वध कर दिया। इस समय वह एकाकी और निःसहाय है। सिंहरथ की संवेदना पाकर राजकुमारी ने उन्हें वर रूप में चुन लिया। दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया। बाद में राजा उसे अपने नगर ले गया। राजा को भ्रमण का तो शौक था ही। वह अक्सर घूमने के लिए उसी पहाड़ पर जाने लगा। निरन्तर पर्वत-नग पर गति करने से उसे नग्गति कहा जाने लगा। ___एक बार नग्गति विशाल सेवक समूह के साथ वन-विहार को गए। मार्ग में उन्होंने पूरी शान से खड़े एक फलों और फूलों से लदे आम्रवृक्ष को देखा। वे उसकी शान और समृद्धि पर मुग्ध हो गए। हाथ ऊपर उठाकर उन्होने एक गुच्छा तोड़ लिया और आगे चले। अनुगामी सेवक दल ने भी राजा की नकल की और प्रत्येक ने एक-एक गुच्छा तोड़ लिया। देखते ही देखते वह आम्रवृक्ष अपनी समृद्धि खोकर लूंठ बन गया। लौटते हुए राजा ने उस ढूंठ को देखा। पूछने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह वही आम्रवृक्ष है, जो कुछ देर पहले पूर्ण वैभव में मुस्करा रहा था। सुनकर नग्गति को एक गहरा आघात लगा, जिसने उनकी प्रमाद निद्रा को भंग कर दिया। उन्होंने सोचा, रूप और वैभव कितना अस्थिर है ! इसको विलीन होते क्षण भर भी नहीं लगता ! इससे पूर्व कि मेरा रूप और वैभव क्षीण हो, मुझे आत्मकल्याण का उपाय कर लेना चाहिए! वहीं खड़े-खड़े नग्गति को अवधिज्ञान हो गया। उन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया और अकेले ही निर्जन वनों की ओर प्रस्थित हो गए। सम्यक् साधना से केवलज्ञान साधकर मोक्ष में गए। -उत्तराध्ययन, वृत्ति 9 नन्नसूरि (आचार्य) वी.नि. की चौदहवीं शताब्दी के एक जैन आचार्य। श्रमणदीक्षा लेने से पूर्व नन्नसूरि तलवाड़ा नगर के राजा थे। एक बार वे शिकार के लिए वन में गए। मृगसमूह पर उन्होंने बाण चलाया। बाण एक गर्भिणी मृगी के उदर में लगा। मृगी का उदर फट गया और गर्भस्थ शावक जमीन पर आ गिरा। मृगी और शावक ने तड़प-तड़प कर प्राण छोड़े। यह घटना राजा ने अपनी आंखों से देखी। उससे उनका अन्तर्मन द्रवीभूत बन गया। पश्चात्ताप की अग्नि में उनका हृदय दग्ध हो गया। वे हिंसात्मक जीवन से विरक्त हो गए और राजपाट का त्याग कर मुनि बन गए। वे राजर्षि कहलाए और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनसे राजगच्छ का प्रारंभ हुआ। आचार्य नन्नसूरि के शिष्य परिवार और शिष्य परम्परा में अनेक विद्वान मुनि और आचार्य हुए। यशोवादी सूरि, सहदेव सूरि, प्रद्युम्न सूरि आदि राजगच्छ के विख्यात आचार्य हुए। ... जैन चरित्र कोश .. -- 305 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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