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________________ एक बार भगवान महावीर अपने धर्मसंघ के साथ आबू नगर पधारे। नरेश नंदिवर्द्धन ने भगवान के पदार्पण को अपना पुण्योदय माना और प्रभु की पर्युपासना के लिए वह उनके चरणों में उपस्थित हुआ। प्रभु का उपदेश सुनकर उसके अन्तर्चक्षु खुल गए और उसने श्रावक धर्म अंगीकार किया। 'मूर्ति का प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थ के अनुसार नंदिवर्द्धन नरेश ने वहां एक जिनालय भी बनवाया, जिसकी सूचना वहां हुई खुदाई से प्राप्त एक अभिलेख द्वारा भी प्राप्त होती है। -तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (क) नंदीवर्धन तीर्थंकर महावीर के अग्रज। महावीर/वर्धमान पर उनका पूर्ण अनुराग भाव था। माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् वर्धमान प्रव्रज्या के पथ पर जाने लगे तो नंदीवर्धन का अनुराग उनकी पथबाधा बन गया। आखिर नंदीवर्धन के अनुराग और आदेश में बंधकर वर्धमान ने महाभिनिष्क्रमण का कार्यक्रम दो वर्ष के लिए स्थगित कर दिया था। पिता महाराज सिद्धार्थ के देवलोकगमन के पश्चात् नंदीवर्धन क्षत्रिय कुण्डनगर के अधिपति बने। उन्होंने पूर्ण न्याय और नीति से राज्य का संचालन किया। महाराज चेटक की पुत्री ज्येष्ठा से उनका पाणिग्रहण हुआ था। -महावीर चरित्र (ख) नंदीवर्धन विपाक सूत्र के अनुसार नंदीवर्धन एक कामासक्त और अति महत्त्वाकांक्षी युवक था। पूर्वजन्म के क्रूरतम संस्कार उसके भीतर संचित थे। पूर्वजन्म में वह सिंहपुर नगर के राजा सिंहरथ द्वारा कोतवाल नियुक्त किया गया था, जहां उसका नाम दुर्योधन था। कोतवाल होने से नगर संरक्षण का दायित्व उस पर था। इस दायित्व को उसने अपना अधिकार मान लिया और उसकी ओट में उसने अपनी हिंसक मनोवृत्ति और क्रूरता को पूर्ण सन्तुष्ट किया। छोटे-छोटे अपराध करने वालों को भी वह ऐसी भयंकर यातनाएं देता था कि उनके प्राण निकल जाते थे। अपराधियों को लौहदण्डों से पीटना, उन पर उबलते हुए तेल, शीशा, तांबा आदि डाल देना उसका दैनंदिन का कार्यक्रम था। तलवार, चाकू, छुरी आदि से अपराधियों का मांस नोच लेना, उनके अंग भंग कर देना उसके बाएं हाथ का खेल था। वस्तुतः हिंसा से उसे सुख मिलता था। किसी को रोते-चीखते, बिलखते देख कर वह आनंदानुभव करता था। आजीवन वह ऐसा ही करता रहा। मरकर छठी नरक में गया। वहां का दुखमय जीवन पूर्णकर वह मथुरा नगरी के राजा श्रीदाम की रानी बन्धुश्री के गर्भ से पुत्र रूप में जन्मा, जहां उसका नाम नंदीवर्धन रखा गया। युवा हुआ तो महलों में ही अपनी रानियों से घिरा रहता। काम-भोग को ही उसने जीवन का परम रस मान लिया था। पिता उसे उसके कर्त्तव्य की याद दिलाता तो उसे वह बहुत बुरा लगता। एक दिन उसके पूर्वजन्म के संस्कार प्रबल बन गए। उसने सोचा कि जब तक उसका पिता जीवित है, तब तक उसे मनचाहे भोग भोगने को नहीं मिलेंगे। वह राजा बन जाए तो जीवन में अद्भुत आनंद लूटा जा सकता है। इस विचार के साथ उसने एक योजना बना डाली। महाराज की हजामत करने वाले नाई को लोभ देकर पिता की हत्या का कार्य उसे सौंप दिया। राजा की हजामत करते हुए नाई ने जैसे ही अपने कार्य को मूर्त रूप देना चाहा, उसका हाथ कांप गया। साथ ही उसका हृदय भी कंपित बन गया। उसने सोचा कि यदि राजा बच गया तो उसे परिवार सहित शूली पर चढ़ा देगा। नाई ने राजा के पैर पकड़ लिए और पूरा षड्यन्त्र उसे बता दिया। ... 302 .. ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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