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________________ दूसरे दिन से विकट अटवी की यात्रा प्रारंभ हो गई। यात्रा चलती रही। मध्य अटवी में नन्दीफल वृक्षों की बहुतायत थी । नन्दीफल वृक्षों की सघन छाया देखकर कुछ लोग उनके निकट जाने का लोभ संवरण न कर सके। नंदीफल वृक्षों पर लगे फल अत्यंत सुन्दर और मधुर प्रतीत हो रहे थे । अतः कुछ लोग रसास्वाद वश होकर उन फलों को खाने लगे। कुछ क्षण के लिए तो आनन्दानुभूति हुई, पर शीघ्र ही उनके शरीरों में विष फैल गया और वे अकाल काल के ग्रास बन गए । कुछ लोगों ने धन्य के वचनों पर दृढ़ विश्वास रखा और वे नन्दीफल वृक्षों की छाया से भी दूर रहे। शनैः शनैः उन्होंने सकुशल अटवी को पार कर लिया और वे अहिच्छत्रा नगरी में पहुंच गए। धन्य सार्थवाह और साथी व्यापारियों ने अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार किया और आशातीत लाभ अर्जित कर यथासमय अपनी नगरी में लौट आए। चम्पानरेश ने धन्य सार्थवाह का विशेष स्वागत किया । धन्य ने भी मूल्यवान भेंट अर्पित कर राजा को प्रसन्न किया । कालान्तर में मुनि-उपदेश श्रवण कर धन्य सार्थवाह प्रव्रजित हुआ और संयम की आराधना द्वारा स्वर्ग IIT अधिकारी बना । भविष्य में देवलोक से च्यव कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और वहां से मोक्ष में जाएगा। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में वर्णित इस कथा का कथ्य इस प्रकार है- धन्यसार्थवाह तीर्थंकर देव के तुल्य है। विशाल सार्थ चतुर्विध संघ तुल्य है । विकट अटवी के नंदीफल सांसारिक विषय भोगों के प्रतीक हैं। जो साधक तीर्थंकर देव की आज्ञा पर अनास्था कर विषय भोगों के उपभोग में लीन हो जाते हैं, वे जन्म-मरण रूप संसार में खो जाते हैं। इसके विपरीत जो साधक तीर्थंकर देव की आज्ञा का श्रद्धापूर्वक पालन करते हुए विषय-भोगों की कामना मात्र से भी दूर रहते हैं, वे विकट अटवी रूप संसार को पार कर मोक्ष रूप मंजिल को प्राप्त कर परम आनंद से पूर्ण हो जाते हैं । -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अध्ययन 15 (ख) धन्य सार्थवाह राजगृह नगर का एक सम्पन्न गृहस्थ । धन्य के पास धन-सम्पत्ति की तो कमी नहीं थी, पर वह निःसंतान होने से स्वयं को विपन्न ही मानता था । उसकी पत्नी भद्रा पुत्र - प्राप्ति के लिए नित्य देवपूजन किया करती थी। संयोग से अधेड़ावस्था में उसे एक पुत्र हुआ, जिसे देवताओं का प्रसाद मानकर देवदत्त नाम दिया गया। धन्य सार्थबाह ने पंथक नामक दासी - पुत्र को देवदत्त को खेलाने और घुमाने का दायित्व सौंप दिया । एक बार पंथक देवदत्त को खेलाने के लिए घर से दूर निकल गया और बालक को एक स्थान पर बैठाकर स्वयं अन्य बालकों के साथ खेल में तल्लीन हो गया। उधर विजय नामक एक क्रूर चोर की दृष्टि देवदत्त बालक के शरीर पर रहे हुए कीमती आभूषणों पर पड़ी । अवसर साधकर विजय चोर ने शिशु देवदत्त का अपहरण कर लिया। अपनी चादर में शिशु को छिपाकर वह नगर के बाहर स्थित जीर्ण उद्यान में एक पुराने कुएं पर गया। उसने शिशु के आभूषण उतार लिए और उसकी हत्या कर शव कुएं में फैंक दिया। दनन्तर वह वहीं एक सघन झाड़ी में छिप गया । देवदत्त के अपहरण की सूचना शीघ्र ही धन्य सार्थवाह को प्राप्त हो गई । त्वरित खोजबीन से बालक का शव कुएं से प्राप्त कर लिया गया और विजय चोर को भी पकड़ लिया गया। सैनिकों ने उसकी कोड़ों से पिटाई की और नगर-भर में घुमाकर हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़कर उसे कारागृह में डाल दिया । उधर कुछ समय पश्चात् किसी ईर्ष्यालु ने धन्य सार्थवाह के विरुद्ध राजा के कान भर दिए और कथित ••• जैन चरित्र कोश *** 285 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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