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________________ पाटलिपुत्र में एक सद्गृहस्थ कुष्ठरोग से पीड़ित था। उसे राजाज्ञा से नगर के बाहर निकाल दिया गया था। रुग्णता से व्यथित उस कुष्ठरोगी ने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। तत्काल उसे विषवृक्ष का विचार आया। विषवृक्ष का फल लेने के लिए वह उद्यान में गया, पर वहां से तो उस वृक्ष को पहले ही उखाड़ा जा चुका था। कुष्ठरोगी ने देखा, वहां पर वृक्ष की छाल पड़ी हुई थी। उसने सोचा, विषवृक्ष की छाल भी तो विषैली ही होगी। उसे खाकर ही मुझे प्राणोत्सर्ग करना चाहिए। इस विचार के साथ उसने उस छाल को चबा लिया। तत्क्षण चमत्कार घटित हुआ। वह व्यक्ति कुष्ठमुक्त हो गया। वह नाचता हुआ राजा के पास पहुंचा और पूरी घटना राजा को बताई। पड़ताल करने पर राजा को ज्ञात हुआ कि माली ने जमीन से उठाकर राजा को फल दिया था। राजा समझ गया कि अवश्य ही किसी विषैले जन्तु ने आम को विषैला बना दिया होगा, जिससे पुरोहित की मृत्यु हो गई। राजा दोहरे पश्चात्ताप में डूब गया। प्रथम यह कि उसने उपकारी और निस्पृह सेठ धनदत्त को कारागृह में डाला और दूसरे यह कि उसने बिना पर्याप्त पड़ताल के दिव्य आम्रवृक्ष को नष्ट करवा दिया। राजा ने उसी क्षण पूरे सम्मान से सेठ धनदत्त को मुक्त करा दिया और अपने अविवेकपूर्ण निर्णय के लिए उससे क्षमा मांगी। सेठ धनदत्त ने प्राप्त सुख-दुख को अपने ही कर्म का फल-भोग माना। साथ ही उसका हृदय सांसारिक रंगों से ऊब गया। गृह त्याग कर वह अणगार बन गया और सद्गति का अधिकारी हुआ। (ग) धनदत्त राजगृह नगर का एक धनी श्रेष्ठी। (देखिए-कृतपुण्य) (घ) धनदत्त ___ प्रतिष्ठानपुर नगर निवासी सेठ धनसार के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र। (देखिए-धन्य जी) (ङ) धनदत्त काम्पिल्य नगर के महाराज ब्रह्म का एक विश्वसनीय और राजभक्त मंत्री, जो अत्यन्त बुद्धिमान था। उसी की बुद्धिमत्ता के परिणामस्वरूप बचपन में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के प्राणों की रक्षा हुई थी। (देखिए-ब्रह्म राजा) (च) धनदत्त ____एक सत्यनिष्ठ सेठ, जो व्यापारी होते हुए भी अपनी सत्यनिष्ठा से कभी किंचित्मात्र भी डावांडोल नहीं हुआ। धनदत्त बाल्यकाल से ही आदर्शों को अपने जीवन में यथार्थ बनाने के लिए उमंगशील रहता था। एक नियम ने उसके लिए उसका मार्ग प्रशस्त किया। एक जैन मुनि से उसने व्यवहार शुद्धि का नियम ग्रहण किया, जि सका लक्षण था कि वह कभी कम नहीं तोलेगा. शद्ध माल का विक्रय करेगा। इस नियम के पालन में सेठ धनदत्त को काफी कठिनाइयां आईं। उसका मूल धन भी शनैः-शनैः चुकने लगा। पर उसने कभी असत्य संभाषण नहीं किया, कभी तोल-माप में बेइमानी नहीं की, सोने के भाव से कभी मिट्टी नहीं बेची। एक क्षण आया कि धनदत्त को उदरपोषण के लाले पड़ गए। पर उसकी व्रतनिष्ठा अखण्ड और अडोल थी। उसे भूखों मर जाना स्वीकार था पर असत्य स्वीकार नहीं था। ... जैन चरित्र कोश... - 269 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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