SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चोर माता व पिता का स्नेह-वात्सल्य उस पर विशेष था। परिणामतः देवयश अपठित रह गया। कालान्तर में जब माता-पिता प्रव्रजित हो गए तो चारों भाइयों का संयुक्त परिवार चार अलग-अलग घरों में विभक्त हो गया। तीनों बड़े भाइयों ने परस्पर संपत्ति को बांट लिया, देवयश रिक्त रह गया। आखिर बिना धन के कब तक निर्वाह होता! पत्नी को चम्पापुर में ही छोड़कर देवयश धनार्जन के लिए परदेस रवाना हो गया। मार्ग में एक मासोपवासी मुनि को भिक्षा प्रदान कर उसने महान पुण्य का बन्ध किया। वह राजगृह नगरी में पहुंचा। वहां उसने एक महात्मा से चार टके में चार बातें खरीदीं। उन चार बातों को स्मरण कर वह आगे बढ़ा। जंगल में ही सांझ हो गई। महात्मा ने उसे बताया था कि जंगल में नहीं सोना। वह आगे बढ़ा तो देखा वन दावानल से सुलग रहा था। आगे एक नगर था। वह एक दुकान के सामने बरामदे में सो गया। एक चोर ने दुकान में सेंध लगाई। दुर्दैववश दुकान की दीवार ढह गई और चोर दीवार के नीचे दबकर मर गया। पंचों ने देवयश को चोर माना। पर देवयश के सरल स्पष्टीकरण से पंच संतुष्ट हो गए। चोर का शव दीवार के मलबे से निकाला गया। पंचों ने देवयश को दायित्व दिया कि वह चोर के शव को जंगल में दफना कर आए। महात्मा ने देवयश को कहा था कि पंचों की बात को पूरा करना। फलतः पंचों की बात को शिरोधार्य कर देवयश के शव को जंगल में ले गया। उसकी दष्टि चोर की जंघा पर पडी. जो सिली हई थी। देवयश ने सन रखा था कि लोग शल्य क्रिया द्वारा धन शरीर में छिपा लेते हैं। उसने चोर की जंघा को चीरा तो उसे रत्नों की एक पोटली मिली। देवयश का भाग्य खुल गया। वह रत्नों की पोटली लेकर अपने घर पहुंचा। उसकी गणना नगर के धनी श्रेष्ठियों में होने लगी। उसकी पत्नी ने एक दिन दबाव देकर पूछा कि उसे इतना अधिक धन कहां से प्राप्त हुआ है। महात्मा ने तृतीय बात के रूप में देवयश को बताया था कि कोई भी गुप्त रहस्य स्त्री को नहीं बताना चाहिए। पर पत्नी के अत्यधिक दबाव में आकर उसने उसे रत्नों की प्राप्ति की बात बता दी। स्त्रियों के पेट में बात पचती नहीं है। सो एक दिन देवयश की पत्नी ने अपनी एक अंतरंग सखी से अपनी समृद्धि की मूलकथा सुना दी। सखी ने अपने पति को सब बातें बता दीं। सखी का पति राज्य का गुप्तचर अधिकारी था। उसने संदेह के आधार पर देवयश को बन्दी बना लिया। देवयश को तत्क्षण अपनी भूल का अहसास हो गया। उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। महात्मा ने अंतिम बात के रूप में उसे बताया था कि राजा के समक्ष सदैव सत्य बोलना। राजा ने देवयश से धन प्राप्ति का कारण पूछा तो देवयश ने अक्षरशः इतिवृत्त वर्णित कर दिया। उसके सरल सत्य पर राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने देवयश को ससम्मान स्वतंत्र तो किया ही, साथ ही नगरसेठ के सम्माननीय पद से विभूषित भी किया। देवयश ने धर्मध्यान को समर्पित रहकर जीवन जीया। अंतिम अवस्था में एक मुनि का उपदेश सुनकर वह विरक्त हो गया। अपनी पत्नी के साथ उसने आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार की। तप, संयमपूर्वक जीवन जीकर वे दोनों देवलोक के अधिकारी बने। यथाक्रम से दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे। देवयशसेन (देखिए-अनीयसेन कुमार) -अन्तगडसूत्र तृतीय वर्ग, पंचम अध्ययन देवयज्ञ स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) ___ उन्नीसवें विहरमान तीर्थंकर, जो वर्तमान काल में अर्धपुष्करद्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की वच्छ विजय में धर्मोद्योत करते हुए विचरणशील हैं। वच्छ विजय की सुसीमा नामक नगरी में प्रभु का जन्म हुआ था। राजा सर्वभूति की रानी गंगादेवी की रत्नकुक्षी से प्रभु जन्मे। चंद्र चिह्न से सुशोभित प्रभु जब युवा हुए तो .. जैन चरित्र कोश ... - 255 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy