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________________ दुर्बलका पुष्यमित्र (आचार्य) 1 श्रमण परम्परा के एक प्रभावशाली श्रुतधर आचार्य | आचार्य सुहस्ती की गण परम्परा के महान आचार्य आर्य रक्षित उनके गुरु थे । दुर्बलिका पुष्यमित्र का जन्म वी. नि. 550 में हुआ। सत्रह वर्ष की अवस्था में उन्होंने आर्य रक्षित के पास दीक्षा धारण की। दीक्षा के पश्चात् उन्होंने आगमों का गहन अध्ययन किया और पूर्वो के विशाल ज्ञान को हृदयंगम किया । कहते हैं कि ध्यान साधना में विशेष रूप से लगे रहने के कारण वे कृशकाय थे। किसी समय बौद्ध भिक्षुओं ने बौद्ध परम्परा की ध्यान प्रणाली की आर्यरक्षित के समक्ष अत्यधिक अनुशंसा की और कहा, जैन परम्परा में ध्यान की वैसी प्रणाली नहीं है। तब आर्यरक्षित ने अपने शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र की ओर इंगित करके कहा कि यदि तुम जैन परम्परा की ध्यान प्रणाली जानना चाहते हो तो मेरे इस शिष्य से जान सकते हो । आर्यरक्षित की आज्ञा से आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र कई दिनों तक बौद्ध भिक्षुओं के साथ रहे। दुर्बलिका पुष्यमित्र की ध्यान साधना विधि और उनकी ध्यान में गहराई को देखकर बौद्ध भिक्षुओं का मिथ्या अहं गल गया । आर्यरक्षित के कई सुयोग्य शिष्य थे, जिनमें प्रमुख थे- दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विन्ध्य, गोष्ठामाहिल, घृतपुण्यमित्र, वस्त्रपुण्यमित्र आदि। इन शिष्यों की अपनी-अपनी विशिष्टताएं थीं। इनमें से कई लब्धिधारी और कई विद्वान और वादकुशल थे । आर्यरक्षित ने अपना उत्तराधिकार आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र को प्रदान किया । दुर्बलिका पुष्यमित्र ने कुशलता और तत्परता से जिनशासन का संचालन किया। वी.नि. 587 में वे आचार्य बने और वी. नि. 617 में उनका स्वर्गवास हुआ। उनके शासन काल में जिनशासन की प्रभूत प्रभावना हुई। - प्रभावक चरित दुर्मुख महाराज बलदेव और उनकी रानी धारिणी के अंगजात । इन्होंने भी सुमुख की भांति भगवान से दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया था । (शेष- सुमुखवत्) - अन्तगड सूत्र वर्ग 3, अध्ययन 10. दुर्योधन धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र । बाल्यकाल से ही दुर्योधन में प्रतिस्पर्धा की भावना थी । उसने भीम, अर्जुन आदि अपने चचेरे भाइयों को अपने प्रतिस्पर्धियों के रूप में देखा। उन्हें परास्त करने के लिए वह सदैव लालायित रहता था। उसकी प्रतिस्पर्धी भावनाओं को ईर्ष्या का रूप-रंग दिया उसके मामा शकुनि ने । दुर्योधन की महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या के कारण ही महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध की नींव पड़ी। कौरवों और पाण्डवों के मध्य निरन्तर दूरियां बढ़ती गईं। दुर्योधन ने पुनः पुनः न्याय और नीति की अवमानना की तथा ज्येष्ठ पुरुषों की आज्ञाओं और आदेशों का उल्लंघन किया। कृष्ण जैसे महापुरुष को भी उसने गिरफ्तार करने का षड्यन्त्र रच डाला । शान्ति के समस्त प्रस्तावों का उसने अनादर किया । परिणामतः महाभारत का विनाशकारी युद्ध लड़ा गया। उस युद्ध में दुर्योधन अपने भाइयों और मित्रों सहित काल का - जैन महाभारत ग्रास बन गया । दुर्योधन चारकपाल विपाक सूत्र के अनुसार दुर्योधन प्राचीनकालीन सिंहपुर नामक नगर का कोतवाल था । (देखिए-नन्दीवर्धन) ••• जैन चरित्र कोश • *** 247 ♦♦♦
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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