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________________ आज्ञा दें तो मैं शेर को जलेबियां भी खिला सकता हूं! ___ नरेश ने शेर के भोजन का दायित्व दीवान जी को सौंप दिया। दीवान जी ने निरंतर तीन दिनों तक जलेबियों के थाल शेर के पिंजरे में रखवाए, पर शेर ने उन्हें नहीं खाया। चौथे दिन जलेबियों का थाल लेकर दीवान जी स्वयं शेर के पिंजरे में गए। उन्होंने कोमल शब्दों में शेर से कहा-वनराज! ये जलेबियां खाकर अपनी क्षुधा शान्त करो, अन्यथा मैं प्रस्तुत हूं, मुझे खाकर अपनी भूख मिटाइए! कहते हैं कि पहले तो शेर गुर्राया, पर शीघ्र ही वह शान्त हो गया। उसने जलेबियां खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर ली। इस प्रकार एक अहिंसा के पुजारी श्रावक ने जन्मना हिंसक जानवर को अहिंसा में दीक्षित कर दिया। दीहभद्र आचार्य संभूतविजय के एक शिष्य। -कल्पसूत्र स्थविरावली दुंदुक (राजा) एक जैन राजा। वी.नि. की चौदहवीं शताब्दी में वह कान्यकुब्ज के सिंहासन पर आसीन हुआ। आचार्य बप्पभट्टि का उस पर विशेष प्रभाव रहा। जैन धर्म के संस्कार उसे आचार्य श्री से तथा अपने पिता महाराज आम से विरासत में प्राप्त हुए थे। (देखिए-बप्पभट्टि आचार्य) दुइज्जंत (तापस) मोराक सन्निवेश के बहिर्भाग में स्थित आश्रम का कुलपति। वह महाराज सिद्धार्थ का मित्र था। उसकी प्रार्थना पर भगवान महावीर ने उसके आश्रम में साधना-काल का प्रथम वर्षावास बिताने का उसे वचन दिया था। वर्षावास के पन्द्रह दिन ही भगवान ने उसके आश्रम में बिताए। वर्षावास के शेष मास भगवान ने अस्थिक ग्राम के शूलपाणि यक्ष के यक्षायतन में बिताए। ___ दुइज्जंत एक तापस था और अनेक तापस उसके आश्रम में रहकर तप करते थे। सभी तापसों को अलग-अलग तृण कुटीर दिए गए थे। महावीर को भी दुइज्जत ने एक तृणकुटीर दिया था। यह नियम था कि प्रत्येक तपस्वी अपने-अपने कुटीर की रक्षा स्वयं करेगा। जब यही नियम महावीर के लिए भी निर्देशित किया गया तो महावीर ने कुटीर-रक्षा को अपनी साधना में बाधा माना और उन्होंने कुटीर का त्याग कर शूलपाणि यक्ष के यक्षायतन में शेष वर्षावास बिताया। दुध चम्पा नगरी का रहने वाला एक युवक । नागदत्त नामक एक श्रेष्ठी-पुत्र से उसकी मैत्री थी। प्रारंभ में ये दोनों युवक संपन्न थे, पर दुर्दैववश समस्त समृद्धि खो बैठे। परिवार-पालन भी भार बन गया तो दोनों ने देवाराधना से धन प्राप्त करने का निश्चय किया। दोनों कालिंजर पर्वत पर पहंचे। दुध अपने कुलदेवता कबेरयक्ष की आकांक्षारहित चित्त से आराधना में तल्लीन हो गया और शीघ्र ही यक्ष-कृपा से समृद्ध बन गया। नागदत्त ने आकांक्षा से भरे चित्त से अपनी कुलदेवी की आराधना प्रारंभ की। पांच दिन तक वह निराहार देवी की आराधना करता रहा। छठे दिन एक पुरुष उसके पास आया। पुरुष ने कहा, तुम व्यर्थ इस देवी की आराधना में शरीर और समय बर्बाद कर रहे हो! पास ही सिद्धत्व देव का आयतन है। तुम उस देव की आराधना करो और समृद्ध बनो! नागदत्त ने देवी की आराधना छोड़कर सिद्धत्व देव की ... जैन चरित्र कोश... - 245 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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