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________________ तारा आपके ग्रन्थों की भाषा तत्कालीन बोलचाल की भाषा है, जो अपभ्रंश के निकट है। वि.सं. 1772 में आप का स्वर्गवास हुआ। ज्योतिपुर नरेश ज्वलनशिख की पुत्री और किष्किन्धानरेश महाराज सुग्रीव की रानी। तारा अत्यन्त रूपवती थी। उसके विवाह से पूर्व ही अनेक राजा और राजकुमार उससे विवाह करने को आतुर थे । उनमें से एक था राजकुमार साहसगति । तारा का विवाह हो जाने के पश्चात् भी साहसगति ने हिम्मत नहीं हारी। उसने रूपपरावर्तिनी विद्या को सिद्ध किया और एक दिन जब महाराज सुग्रीव राजमहल से बाहर गए थे वह उनका रूप धारण कर महल में घुस आया। असली सुग्रीव लौटे तो द्वारपालों ने उन्हें रोक दिया। दो सुग्रीवों का विवाद पूरे जनपद में फैल गया। मंत्रियों, अधिकारियों और बुजुर्गों के सहस्रों प्रयासों से भी असली-नकली सुग्रीव का निर्णय नहीं किया जा सका। युद्ध और मल्लयुद्ध से भी सच सामने नहीं आया । आखिर सुग्रीव की श्रीराम से भेंट हुई। श्रीराम ने नकली सुग्रीव को दण्ड देने का वचन दिया। दोनों सुग्रीवों को एक साथ बुलाया गया। श्री राम ने अपने वज्रावर्त धनुष से धनुष्टंकार की । उस प्रचण्ड ध्वनि से भयभीत बनकर साहसगति की विद्या लुप्त हो गई। उसी धनुष से श्री राम ने साहसगति का वध कर दिया। तारा को उसका असली पति मिल गया । - त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र - पर्व 7 ताराचंद भारमल कावड़िया का ज्येष्ठ पुत्र और भामाशाह का सहोदर, एक शूरवीर और परम जिनोपासक । ताराचंद ने अपना पूरा जीवन मेवाड़ के उद्धार में लगा दिया था। राणा उदयसिंह ने वीरवर ताराचंद को गौड़वाड़ प्रदेश का प्रशासक नियुक्त किया था। बाद में वह महाराणा प्रताप का भी विश्वसनीय रहा। मुगल सेना के विरुद्ध हल्दीघाटी युद्ध में उसने महाराणा प्रताप के नेतृत्व में अद्भुत युद्ध कौशल दिखाया था। हल्दीघाटी युद्ध में पराजय के पश्चात् भी वीरवर ताराचंद शान्त नहीं बैठे। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। मेवाड़ में पुनः प्रताप को शासनारूढ़ करने में उसका अपूर्व योगदान रहा। ताराचंद सादड़ी के निवासी थे। उनके पाषाण- उत्कीर्णित चित्र अब भी वहां विद्यमान हैं। तारा सुंदरी राजपुर के सेठ लक्ष्मीपति की पुत्री, जो स्त्री की चौंसठ कलाओं में निपुण थी। वह बुद्धिमती, रूपवती और धर्मप्राण बाला थी। राजपुर नगर का राजकुमार मदनसेन तारासुंदरी के रूप और गुणों पर मुग्ध हो गया। उसने उससे विवाह कर लिया। कालक्रम से तारासुंदरी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम पद्मसेन रखा गया । एक बार तारासुंदरी राजमहल की छत पर सो रही थी। उसके रूप पर मुग्ध होकर एक विद्याधर ने उसका अपहरण कर लिया। दूसरे दिन तारासुंदरी निद्रा से जगी तो उसने अपने आपको अन्यत्र पाया। जब तक वह किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाती, विद्याधर उसके समक्ष उपस्थित हुआ और उसने स्पष्ट किया कि वह उसका अपहरण कर लाया है और उसे अपनी अर्द्धांगिनी बनाएगा। तारासुंदरी ने युक्तियुक्त बातों से विद्याधर को समझाया, पर वह समझने को तैयार नहीं हुआ। तब तारासुंदरी ने उग्ररूप धारण करते हुए कहा, दुष्ट ! तू इस देह पर मोहित हो रहा है, देख इस देह का रूप ! कहकर उसने अधोवस्त्र के अतिरिक्त अपने सभी वस्त्र उतार दिए। फिर उसने कहा, यह चमड़ी भी तो एक वस्त्र ही है ! कहकर उसने अपने नाखूनों से अपनी • जैन चरित्र कोश ••• *** 228
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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