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________________ की दीवारों पर लिख रखा था। दुर्दैववश एक दिन सेठ के घर में आग लग गई। घर तो जला ही साथ ही लेन-देन का ब्यौरा भी निःशेष हो गया। इससे सेठ उदास हो गया। उधर युगल बन्धु सेठ के पास पहुंचे। उन्होंने सेठ की उदासी का कारण ज्ञात किया। युगल बन्धुओं ने अपनी स्मरण शक्ति के बल पर दीवारों का लेखा-जोखा कागज पर लिखकर सेठ के हाथ में थमा दिया। इससे सेठ को हार्दिक प्रसन्नता हुई। उसने सोचा, इन ब्राह्मण युवकों से जिन धर्म की अच्छी प्रभावना संभव है। युगलबन्धुओं को अपने साथ लेकर सेठ लक्ष्मीधर वर्धमान सूरि के पास गया। वन्दन-दर्शन-आसन ग्रहण के पश्चात् सेठ ने आचार्य श्री को युगल बन्धुओं का परिचय दिया। लक्षण शास्त्र के विशेषज्ञ आचार्य श्री ने युगल बन्धुओं के उत्कृष्ट लक्षणों का अध्ययन किया और उन्हें उपदेश देकर प्रतिबोधित किया। युगल बन्धुओं की प्रार्थना पर आचार्य श्री ने उनको दीक्षा प्रदान की। युगलबन्धुओं को आचार्य श्री ने जिनेश्वर और बुद्धिसार नाम प्रदान किए। आचार्य वर्धमान सूरि के सान्निध्य में युगल मुनियों ने आगम साहित्य का अध्ययन किया। थोड़े ही समय में वे जैन दर्शन के दिग्गज विद्वान बन गए। गुरु ने दोनों को सूरि पद प्रदान किया। आचार्य जिनेश्वर और बुद्धि सागर गुर्वाज्ञा से स्वतंत्र विचरण कर जैन धर्म की प्रभावना करने लगे। विचरण क्रम में युगलबन्धु पाटण नगर में पहुंचे। वहां चैत्यवासी श्रमणों का विशेष प्रभाव था। चैत्यवासी श्रमणों ने पाटण के पूर्व नरेश वनराज चावड़ा से यह आदेश जारी करा लिया था कि चैत्यवासी श्रमणों की अनुमति के बिना अन्य श्रमण पाटण में नहीं आ सकते। यह क्रम लम्बे समय तक चला। इस क्रम को सुविहितमार्गी आचार्य जिनेश्वर ने खण्डित किया। उन्होंने तत्कालीन पाटण नरेश दुर्लभ राज की सभा में चैत्यवासी श्रमणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उनके प्रभाव को न्यून बना दिया। ___ आचार्य जिनेश्वर एक धुरन्धर विद्वान और वादी आचार्य के रूप में प्रख्यात हुए। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना भी की। आचार्य जिनेश्वर और बुद्धिसागर का समय वी.नि. की 16वीं शताब्दी माना जाता है। -खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि जीर्ण सेठ विशाला नगरी का रहने वाला एक ऐसा सेठ, जिसकी धन, सम्पत्ति और समृद्धि क्षीण हो चुकी थी। किसी समय वह नगरी का समृद्ध श्रेष्ठी था और उसका नाम जिनदत्त था। समृद्धि जीर्ण हो जाने से लोगों ने उसे जीर्ण सेठ के नाम से ही पुकारना प्रारंभ कर दिया था। समृद्धि जीर्ण हो गई थी पर आध्यात्मिक समृद्धि से वह समृद्ध था। वह धर्मध्यान करता और श्रमणों के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति रखता था। - विशाला नगरी में छद्मस्थ अवस्था में भगवान महावीर चातुर्मासिक उपवास के साथ वर्षावास व्यतीत कर रहे थे। नगर के बाह्य भाग में स्थित बलदेव मंदिर में भगवान प्रतिमा धारण किए हुए ध्यानस्थ थे। जीर्ण सेठ उधर गया। भगवान को वन्दन कर उसने भिक्षार्थ पधारने की प्रार्थना की। घर जाकर वह भगवान के पधारने की प्रतीक्षा करने लगा। पर भगवान तो उपवासी थे। नहीं आए। जीर्ण सेठ प्रतिदिन भगवान की पर्युपासना के लिए जाता और भिक्षा की प्रार्थना करके लौट आता तथा भिक्षा का समय होने पर प्रभु की प्रतीक्षा करता। भगवान के न आने पर इस विचार से समाधीत बन जाता कि प्रभु तपरत हैं। जीर्ण सेठ का यह क्रम निरन्तर चार मास तक चलता रहा। चातुर्मास के अन्तिम दिन उसे पूर्ण विश्वास था कि आज उसके प्रभु अवश्य उसे कृतार्थ करेंगे। प्रासुक और कल्प्य आहार सामग्री के साथ वह गृह-द्वार ...216 ... ... जैन चरित्र कोश ....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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