SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुलदेवी की अग्रिम सूचना से सेठ वृद्धदत्त बहुत चिन्तित हो गया। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह पुत्र को जन्म देने से पूर्व ही दासी पुष्पश्री को मार डालेगा, जिससे न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । ऐसा विचार कर वृद्धदत्त ने व्यापार के बहाने काम्पिल्यपुर के लिए प्रस्थान कर दिया । काम्पिल्यपुर पहुंचकर उसने सेठ त्रिविक्रम से मित्रता स्थापित कर ली। कुछ दिन साथ रहने के बाद जब वृद्धत्वा होने लगा तो सुनियोजित योजनानुसार उसने त्रिविक्रम को बहुमूल्य भेंट प्रदान की । प्रत्युत्तर में त्रिविक्रम ने वृद्धदत्त को भेंट में कुछ देना चाहा। इस पर वृद्धदत्त ने कहा, मित्र! कुछ देना ही चाहते हो तो अपनी दास पुष्पश्री मुझे दे दीजिए! इसने सेवाभाव से मेरा मन मोह लिया है । त्रिविक्रम ने कहा, मित्र ! मैं आपके कथन को अवश्य पूरा करूंगा, पर कुछ दिन बाद ! क्योंकि पुष्प श्री गर्भ से है । आजकल में ही वह संतान को जन्म देने वाली है। प्रसव के पश्चात् आप पुष्प श्री को प्राप्त कर सकते हैं। इस पर सेठ वृद्धदत्त ने कहा, मित्र! पुष्प श्री का वैसा ही ध्यान मैं रखूंगा, जैसा आपके घर में रखा जाता है। आप निश्चिन्त रहिए और पुष्पी को भेंट में मुझे दे दीजिए! त्रिविक्रम ने वृद्धदत्त की बात स्वीकार कर ली और अपनी दासी को वृद्धदत्त को भेंट कर दिया । मन ही मन प्रसन्न होते हुए वृद्धदत्त ने काम्पिल्यपुर से चम्पानगरी के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उसने पुष्प श्री का गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी और शीघ्र कदमों से आगे बढ़ गया । वह कुलदेवी की बात को असत्य सिद्ध कर अपने भीतर खुशी से समा नहीं पा रहा था । पर यह सच है कि मारने वाले से बचाने वाला सदैव बलशाली होता है। सेठ के जाते ही प्राणहीन पुष्प श्री के गर्भ से एक शिशु बाहर आकर गिरा। उसका पालन-पोषण उज्जयिनी नगरी की रहने वाली एक वृद्धा के घर पर हुआ। उसका नाम चंपक रखा गया। योग्य वय में उसे विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया। एक बार सहपाठियों ने उसके कुलगोत्र पर अंगुलियां उठाई तो उसने वृद्धा से अपना परिचय पूछा। वृद्धा ने अथान्त अक्षरशः उसका परिचय कह दिया । इससे चंपक के मन में यह भावना प्रबल बनी कि जन्म से भले ही वह दासीपुत्र है पर अपने कर्म से वह सिद्ध कर देगा कि व्यक्ति जन्म से नहीं बल्कि कर्म से ही श्रेष्ठ होता है। अध्ययन पूर्ण कर चंपक ने व्यवसाय प्रारंभ किया । श्रम, निष्ठा और प्रामाणिकता के बल पर उसका व्यवसाय चमक उठा। कुछ ही समय में उसकी गणना नगर के प्रमुख व्यवसाइयों में होने लगी । उधर वृद्धदत्त की पत्नी ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम तिलोत्तमा रखा गया । तिलोत्तमा ने शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर युवावस्था में प्रवेश किया। किसी समय उज्जयिनी के किसी श्रेष्ठी के पुत्र की बारात चम्पानगरी के निकटस्थ ग्राम में आई। चंपक भी बारात में आया था । वृद्धदत्त के कन्यापक्ष से मैत्री सम्बंध थे, सो उसे भी आमंत्रित किया गया था । वृद्धदत्त की दृष्टि चंपक पर पड़ी तो उसने उसे अपनी पुत्री के सर्वथा योग्य पाया । वृद्धदत्त ने चंपक से उसका कुल - गोत्र पूछा। चंपक्र ने बिना कुछ छिपाए अपना परिचय सेठ को बता दिया। सेठ को लगा कि वह हत्या का दोषी बनकर भी कुलदेवी के कहे को मिथ्या नहीं कर पाया है। उसने पुनः एक षड्यंत्र रचा और एक पत्र लिखकर चंपक को दिया । उसने कहा, वह उसके घर जाए और उसके भाई साधुदत्त से मिले । साधुदत्त उसके लिए एक ऐसे व्यापार का प्रबन्ध करेगा, जिसमें . उसे अल्पकाल में ही करोड़ों का लाभ होगा। सरल चित्त चंपक सेठ का पत्र लेकर चम्पानगरी पहुंचा। सेठ के घर गया तो संयोग से उसकी मुलाकात तिलोत्तमा से हो गई । तिलोत्तमा ने पत्र पढ़ा तो वह कांप गई कि उसके पिता एक सर्वगुण सम्पन्न युवक की हत्या करना चाहते हैं। साथ ही तिलोत्तमा चंपक के रूप और भी मुग्ध हो चुकी थी । उसने पिता के पत्र को फाड़ दिया और पिता की ही शैली में एक अन्य पत्र 1 *** 172 • जैन चरित्र कोश •••
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy