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________________ अपने घर पहुंचा। उसने जड़ियों का माहात्म्य अपनी पत्नी को बताया। पति-पत्नी ने निर्णय किया कि दोनों जड़ियों को पीस कर, उनके दो अलग-अलग लड्डू बनाकर राजा को भेंट कर देने चाहिएं। ऐसा निश्चय कर सेठानी ने दोनों जड़ियों को पीसकर, उनके दो अलग-अलग लड्डू बना दिए। दूसरे दिन प्रभात में राजा को भेंट देने के विचार से वे दोनों लड्डू सेठानी ने संभाल कर रख दिए। उधर चंपक और पत्नी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। दोनों भाई - चंद्रकान्त और सूर्यकान्त घर में आ गए। दोनों ने लड्डूओं को देखा, और इस विचार से दोनों ने एक-एक लड्डू खा लिया कि उनकी मां ने वे उन्हीं के लिए रखे होंगे। साथ ही उन्हें विनोद भी सूझा और उसी आकार के दो मिट्टी के मोदक बनाकर यथास्थान रख दिए और उन पर वस्त्रखण्ड ढांप दिया । दूसरे दिन चंपक सेठ उन लड्डुओं को ज्यों के त्यों उठाकर राजा के पास ले गया और भेंट अर्पित कर बोला, महाराज! इनमें से एक लड्डू को खाने वाला राजा बनेगा और दूसरे लड्डू को खाने वाले के आंसू मोती बन जाएंगे। राजा ने प्रसन्न होकर वे लड्डू ग्रहण कर लिए। पर लड्डुओं पर से वस्त्र खींचते ही राजा की आंखों में खून उतर आया। उसने चीखते हुए कहा, तुम मिट्टी के मोदक हमारे लिए लेकर आए हो, रंक होकर राजा का उपहास करते हो ! सेठ कांप गया । स्थिति उसकी समझ में आ गई। उसने स्पष्ट किया, महाराज ! प्रतीत होता है कि मेरे पुत्रों ने उन लड्डुओं को खा लिया है और उनके स्थान पर मिट्टी के ये मोदक रख दिए हैं! क्रोधान्ध राजा ने चंपक सेठ और उसकी पत्नी को कारागृह में डाल दिया तथा उसके दोनों पुत्रों के वध का आदेश दे दिया। वधिकों के हृदय फूल से कुमारों का वध करते हुए कांप उठे। उन्होंने दोनों कुमारों से कहा कि वे कहीं दूर भाग जाएं और पुनः इस नगर में न आएं। चंद्रकान्त और सूर्यकान्त दोनों कुमार विजन वनों में भटकते-भटकते आगे बढ़े। वन में रात्रि हो गई। अनुक्रम से जाग कर दोनों भाई रात्रि व्यतीत करने लगे। रात्रि के अंतिम प्रहर में चंद्रकान्त को एक सर्प ने डस लिया । प्रातः जाग कर सूर्यकान्त ने भाई की दशा देखी तो वह सिहर उठा । वैद्य की खोज में वह एक दिशा में दौड़ा। पास ही चंद्रपुरी नाम की एक नगरी थी। वहां पर धनसार नामक एक कपटी और लोभी सेठ के चंगुल में सूर्यकान्त फंस गया । उसकी आंखों से टपकते मोती ही उसके बन्धन का कारण बन गए। उधर जंगल से कुछ सपेरे गुजरे। उन्होंने चंद्रकांत को मंत्रौषधि से विषमुक्त बना दिया। भाई को खोजता हुआ चंद्रकान्त चंद्रपुरी नगरी में पहुंचा। नगर नरेश का निःसंतान अवस्था में ही देहान्त हो गया था। पंच-दिव्यों ने चंद्रकान्त को राजा चुन लिया। राजपद पर अधिष्ठित होकर चंद्रकान्त ने अपने भाई की खोज में चारों दिशाओं में अपने सैनिक दौड़ा दिए। पर वह भाई को नहीं खोज पाया । कई वर्ष बीत गए। अपने धर्मनिष्ठ स्वभाव से चंपकसेठ और उसकी पत्नी श्रीपुर के कारागृह से मुक्ति पा गए। भटकते-भटकते चंद्रपुरी पहुंचे और पुण्ययोग से अपने पुत्र राजा चंद्रकान्त के पास पहुंच गए। उधर मोतियों का लोभी धनसार सूर्यकान्त को प्रतिदिन डण्डों से पीटकर मोती बटोरने में लगा था। आखिर उसके पापों का घट भर गया और राजा को रहस्य ज्ञात हो गया। भाई-भाई मिले, माता-पिता पुत्र से मिले । अखण्ड आनन्दनद प्रवाहित हो गया । धनसार को देश- निर्वासन का दण्ड दिया गया । कालक्रम से चंपकसेठ, उसकी पत्नी, चंद्रकान्त, सूर्यकान्त और उनकी दोनों रानियां-यों छहों भव्य जीवों ने चरित्र की आराधना कर स्वर्ग पद प्राप्त किया। आगे के भवों में ये छहों भव्य जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे। जैन चरित्र कोश ••• 169
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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