SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पौषध-कक्ष के कोने में मृण्मय दीप-दोनों एक साथ जलते रहे। जब-जब मृण्मय दीप की लौ डगमगाती, दासी उसे पुनः तैल से भर देती। महाराज की संकल्प समाधि दूने और चौगुने वेग से सुदृढ़ बनती जाती। महाराज के मन के किसी भी तल पर दासी के प्रति खीझ न उभरी। बल्कि उनके मन ने दासी को धन्यवाद ही दिया-कि आज तुमने सच्ची सेवा की! अविचल समाधि में लम्बे समय तक स्थिर रहने से महाराज की देह दर्द उगल रही थी। रोम-रोम में थकावट और भारीपन उतर आया था। पैरों का रक्त जमते-जमते जम गया। उधर प्रभात का सर्य उगते देख दासी ने दीप बझा दिया। पर महाराज का कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रज्ज्वलित ध्यान दीप तब भी अखण्ड रहा। देह ने अपनी सीमाएं स्वीकारते हुए पराजय मान ली। देह गिर गई। महाराज की आत्मा में अध्यात्म का दीप जलता ही रहा-जलता ही रहा। उसी प्रज्ज्वलित दीप के साथ वह दिव्य लोकों की ओर प्रयाण कर गई। -मरण समाधि प्रकीर्णक/आख्यान मणिकोश (आम्रदेव सूरि) 41/126 (ख) चंद्रावतंसक ___ साकेत नगर का एक धर्मनिष्ठ राजा। (देखिए-मेताय) (क) चंद्रावती कंचनपुर नरेश की पुत्री, एक अतिशय रूप-गुण सम्पन्न राजकुमारी। दिखिए-चंद्रसेन) (ख) चंद्रावती एक राजकुमारी, जिसका पाणिग्रहण राजकुमार ईश्वर स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था। (दखिएईश्वर स्वामी) चंपक ___ चम्पापुरी नगरी का एक कोटीश्वर श्रेष्ठी। देव, गुरु और धर्म पर उसकी अगाध आस्था थी। एक रात्रि में लक्ष्मी ने सेठ को दर्शन दिए और कहा, सेठ! तुम्हारे पुण्यकर्म जीर्ण हो चुके हैं, अब मैं तुम्हारे घर में नहीं रुक सकती हूं। कहकर लक्ष्मी अन्तर्धान हो गई। दूसरे ही दिन सेठ की दुकानों में आग लग गई। वह एक ही दिन में अरबपति से खाकपति हो गया। ___ चंपक के दो पुत्र थे-चंद्रकान्त और सूर्यकान्त। सेठ ने विचार किया कि किसी अपरिचित नगर में रहकर उसे अपने दुर्दिन बिताने चाहिएं। इस विचार के साथ एक रात्रि में वह अपनी पत्नी और दोनों पुत्रों के साथ चम्पापुरी से रवाना हो गया। कई दिन के सफर के पश्चात् श्रेष्ठी परिवार श्रीपुर नामक नगर में पहुंचा। वहां एक तृणकुटीर डालकर चंपक अपने परिवार के साथ रहने लगा। जंगल से लकड़ियां काटकर और उन्हें नगर में बेचकर वह अपना और परिवार का पोषण करने लगा। यह क्रम सुदीर्घ काल तक चलता रहा। एक बार चंपक लकड़ियां लेने के लिए जंगल की ओर जा रहा था तो पुण्ययोग से उसे एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि ने उसे धर्मोपदेश दिया। साथ ही उसे प्रत्याख्यान कराया कि महीने की दोनों चतुर्दशियों को वह हरी लकड़ी जंगल से न काटे। चंपक उक्त नियम का सुदृढ़तापूर्वक पालन करने लगा। एक बार एक देव ने उसकी परीक्षा ली, जिसमें सेठ अपने नियम पर खरा सिद्ध हुआ। देव ने प्रसन्न होकर सेठ को दो जड़ी दी और बताया कि प्रथम जड़ी को खाने वाला राजा बनेगा और दूसरी जड़ी को खाने वाले के आंसू मोती बनेंगे। सेठ दोनों जड़ियों को लेकर ... 168 . जैन चरित्र कोश .....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy