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________________ आचार्य धर्मघोष का मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। ___ वर्षावास के पश्चात् गुरु शिष्य वसन्तपुर पहुंचे। वहां एक कोटीश्वर श्रेष्ठी के घर भिक्षा को गए। श्रेष्ठी ने अत्युच्च भावों से मुनियों को आहार बहराया। शिष्य ने गुरु से श्रेष्ठी के उच्च भावों की प्रशंसा की तो गुरु ने कहा, निश्चय ही श्रेष्ठी के भाव बहुत ऊंचे हैं पर गुणपाल से उसकी समता नहीं है। आचार्य श्री के ये वचन कोटीश्वर श्रेष्ठी के कानों में भी पड़ गए। वह गुणपाल के प्रति प्रेम और स्नेह से भर गया। उसने विचार किया कि गुणपाल निश्चय ही महान पुण्यात्मा गृहस्थ है, जिसकी भक्ति-भावना की प्रशंसा निस्पृहअणगार भी करते हैं। श्रेष्ठी ने मुनियों से गुणपाल का परिचय ज्ञात कर लिया। फिर उसने गुणपाल को अपने घर आमंत्रित किया और उसकी आर्थिक स्थिति से परिचित होकर उसकी सहायता करनी चाही। पर स्ववृत्ति में संतुष्ट गुणपाल ने श्रेष्ठी की सहायता को प्रेमपूर्वक अस्वीकार कर दिया और निवेदन किया कि वह अपनी वृत्ति और आय से ही सन्तुष्ट है। परन्तु श्रेष्ठी इससे सन्तुष्ट नहीं हुआ। वह चाहता था कि गुणपाल जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को निर्धनता से किसी न किसी तरह मुक्त करना चाहिए। उसने गुणपाल से ज्ञात कर लिया कि उसके पास छोटा सा एक बाग है, जिसमें अनार के वृक्ष लगे हैं। सेठ ने गुणपाल से एक थैला अनार प्राप्त किए और उन्हें अपने मुनीम को देकर कहा कि विदेश में व्यवसाय करते हुए इन अनारों को ऊंचे से ऊंचे दामों में बेचना। विदेशों में व्यापार करते हुए मुनीम अनारों के थैले को अपने साथ रखता था। एक राज्य में मुनीम व्यापारार्थ गया। संयोग से वहां के राजकुमार को किसी असाध्य रोग ने घेर लिया। वैद्यों ने राजा से कहा, यदि अनार रस के साथ उक्त दवा राजकुमार को दी जाए तो उसके प्राण बच सकते हैं। उस देश में अनार नहीं होते थे। गंभीर समस्या राजा के समक्ष थी। नगर भर में यह बात फैल गई कि अनार रस ही राजकुमार के प्राणों का रक्षक हो सकता है। उक्त बात मुनीम के कानों तक भी पहुंची। उसने राजा के समक्ष अनारों का भरा थैला प्रस्तुत किया। राजा को मानों प्राण मिल गए। राजा ने खुशी से अनारों के वजन के हीरे मोती तोलकर मुनीम को प्रदान किए। ___आखिर अनारों से प्राप्त उस धन को लेकर मुनीम अपने देश पहुंचा और सेठ को वस्तुस्थिति से परिचित कराया। सेठ उस धन को लेकर गुणपाल के पास पहुंचा और धन से भरा वह थैला उसके समक्ष रख दिया। गुणपाल ने उस धन को लेने से इन्कार कर दिया। आखिर सेठ ने उसको सब भांति विश्वास दिलाया कि यह धन उसके दाडिमों (अनारों) की बिक्री से ही प्राप्त हुआ है, अतः इस पर उसी का अधिकार है। गुणपाल विश्वस्त हो गया तो उसने वह धन प्राप्त कर लिया। अपने लिए थोड़ा धन रखकर शेष धन उसने असहाय और जरूरतमंदों की सहायता में लगा दिया। चूंकि वह धन दाड़िमों की बिक्री से प्राप्त हुआ था, फलस्वरूप गुणपाल 'दामिया सेठ' के नाम से विख्यात हो गया। सुसंस्कृत और धर्मनिष्ठ जीवन जीकर गुणपाल-दाड़मिया सेठ सद्गति का अधिकारी बना। (क) गुणमाला (देखिए-श्रीपाल) (ख) गुणमाला पतिव्रत धर्म को प्राणों से भी प्रिय मानने वाली एक राजकुमारी। वह तिलकपुर नरेश सिंहस्थ की इकलौती पुत्री थी और रूप में रति के समान तथा गुणों में अपनी उपमा स्वयं थी। जैन धर्म पर उसकी ... 144 . -... जैन चरित्र कोश ....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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