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________________ (कूर का धान्य) ले आए। साध्वाचार के अनुरूप उन्होंने आचार्य को भिक्षा दिखाई। आचार्य ने अपशब्दों से कूरगडुक की तप-अक्षमता को धिक्कारते हुए उनके भोजन पर थूक दिया। इस पर भी कूरगडुक मुनि के हृदय में एक भी अन्यथा भाव नहीं उपजा। आहार करने बैठे तो स्वयं को धिक्कारने लगे। तपस्वियों के प्रति परम श्रद्धा और गुणगान का भाव उनमें उपज रहा था। उत्कृष्ट भावों तथा अखण्ड समता के बल पर कूरगडुक केवली बन गए। देवदुंदुभियां बज उठीं। सभी ने अनुभव किया कि आहार-त्याग वास्तविक तप नहीं है, वास्तविक तप तो कषाय-त्याग है। -आचारांग चूर्णि कूलबालुक मुनि कूलबालुक एक अविनीत और हठी शिष्य था। एक बार जब वह अपने वृद्ध गुरु के साथ एक पहाड़ी से उतर रहा था तो गुरु आगे थे और वह पीछे था। पीछे से उसने एक शिलाखण्ड सरका दिया। शिला की आवाज से वृद्ध मुनि चौकन्ने हो गए और किसी तरह उन्होंने अपनी रक्षा की। तब उन्होंने शिष्य को श्राप दिया कि वह किसी स्त्री के संसर्ग से पतित होकर दुर्गति का अधिकारी होगा। गुरु के श्राप को मिथ्या सिद्ध करने के लिए कूलबालुक सुनसान और गहन वन में एक पर्वतीय नदी के तट पर रहकर घोर साधना करने लगा। उसकी साधना इतनी कठोर थी कि जब नदी किनारों को तोड़कर बहने लगी, तब भी वह समाधिस्थ बैठा रहा उसकी साधना से प्रभावित होकर एक देवी ने नदी का प्रवाह बदल दिया। इसी से उस मुनि का नाम कूलबालुक पड़ गया। कूलबालुक कभी नगर अथवा ग्राम में भिक्षा के लिए नहीं जाता था। कोई यात्री अथवा पथिक उधर से गुजरता तो उसी से प्राप्त भिक्षा से पारणा करता, अन्यथा तपस्या ही करता रहता था। चेटक-कोणिक संग्राम में जब दस दिनों के युद्ध में कोणिक के दस भाई मारे गए तो उसे अपनी मृत्यु भी साक्षात् दिखाई देने लगी। तब उसने शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र की सहायता से वैशाली की सेना का विनाश कर दिया। महाराज चेटक ने वैशाली दुर्ग-द्वार बंद करवा दिए। कोणिक सहस्रों उपाय करके भी वैशाली के दुर्ग की दीवारों को नहीं तोड़ पाया। तब एक व्यंतरी ने कोणिक को बताया कि मागधिका वेश्या यदि कूलबालुक मुनि को वश में कर ले तो उसके सहयोग से वैशाली का दुर्ग ध्वस्त किया जा सकता है। कोणिक ने बहुत सा धन देकर मागधिका को इस कार्य के लिए राजी कर लिया। मागधिका ने कपटश्राविका का स्वांग रचकर कूलबालुक को पथभ्रष्ट कर दिया। योजनानुसार कूलबालुक ने वैशाली में जाकर वहां स्थित मुनिसुव्रत स्वामी का चैत्य खंडित करवा दिया। चैत्य के खंडित होते ही दुर्ग दीवारें ध्वस्त हो गईं। कोणिक ने वैशाली नगरी में गधों से हल चलवा कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। पतित कूलबालुक गुरु श्राप के कारण दुर्गति का अधिकारी बना। कृतपुण्य राजगृह नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी धनदत्त का पुत्र । कृतपुण्य का जीवन विभिन्न उतार-चढ़ावों से पूर्ण रहा। वह कई वर्षों तक देवदत्ता नामक वेश्या के घर रहा। पिता का सारा धन वेश्या की माता ने हरण कर लिया। घर लौटा तो उसके माता-पिता का निधन हो चुका था। उसकी पत्नी जयश्री ने उसका स्वागत किया। धनार्जन के संकल्प के साथ कृतपुण्य ने घर से प्रस्थान किया तो वह राजगृह नगरी की चम्पा सेठानी के षड्यन्त्र में फंस गया। सेठानी के घर में रहकर उसे उसकी पुत्रवधुओं को एक निर्धारित समय सीमा के लिए पत्नी बनाना पड़ा। वहां वह बारह वर्षों तक रहा। प्रत्येक पत्नी से उसे चार-चार पुत्र हुए। स्वार्थ पूरा हो जाने पर चम्पा सेठानी ने कृतपुण्य को अपने घर से निकाल दिया। पत्नियों ने गुप्त रूप से चार मोदक कृतपुण्य ... जैन चरित्र कोश ... - 113 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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