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________________ था। उसने समरविजय को पकड़ लिया और उससे तलवार छीनकर फेंक दी। उसने मधुर-मिष्ट वचनों से समरविजय को समझाया कि राजपाट सब उसी का है, उसके लिए वह अपने मन में बुराई को न आने दे। पर समरविजय का हृदय तो पूर्वजन्मों की वैरपरम्परा की अग्नि में जल रहा था। वह मौन होकर एक दिशा में चला गया। उसने एक गिरोह का गठन किया और चम्पानगरी में चोरियां करने लगा। ____ महाराज कीर्तिचन्द्र को अपने भाई के आचरण से बड़ा कष्ट था। एक बार आरक्षियों ने समरविजय को चोरी करते पकड़ लिया और कीर्तिचन्द्र के समक्ष उपस्थित किया। अनुज-अनुराग में बंधे कीर्तिचन्द्र ने उसे क्षमा कर दिया। इस पर भी समरविजय सुपथ पर नहीं आया। भाई के इस आचरण को देखकर महाराज कीर्तिचन्द्र बहुत दुखी हुए। दुख से वैराग्य का जन्म हुआ। अपने भानजे को राजपद देकर कीर्तिचन्द्र प्रव्रजित हो गए और कठोर तप करने लगे। ___एक बार जंगल में मुनि कीर्तिचन्द्र ध्यानमुद्रा में लीन थे। समरविजय उधर से गुजरा। भाई को देखकर समरविजय का पूर्वजन्म का वैर ज्वाला बनकर जाग गया। उसने सोचा, इसने मुझे राज्य नहीं दिया, भानजे को दिया, इसका मैं ऐसा बदला लूंगा कि यह जन्मों-जन्मों तक याद रखेगा। क्रूर भावों में भरकर समरविजय ने मुनि की गर्दन पर तलवार का प्रहार किया। समता भरे चित्त से मुनि ने देहोत्सर्ग किया और देवलोक में गए। देवभव से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में वे मनुष्य भव प्राप्त करेंगे और मोक्ष जाएंगे। समरविजय वैर के वश हो अनन्त भव परम्परा में बह गया। -धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 12 कीर्तिधर (देखिए-सुकौशल) कुंचिक सेठ अवन्तीनगरी का रहने वाला एक सेठ। (देखिए-मुनिपति) कुन्थुनाथ (तीर्थंकर) प्रवहमान अवसर्पिणी काल के सत्रहवें तीर्थंकर और छठे चक्रवर्ती। प्रभु ने जीवन के पूर्वार्द्ध भाग में भौतिकता के चरम शिखर छुए और उत्तरार्ध भाग में आध्यात्मिकता के उच्चतम सोपान पर आरोहण किया। भगवान अपने पूर्वभव में पूर्व महाविदेह क्षेत्र के आवर्त विजय में खड्गी नाम की नगरी के राजा थे जहां उनका नाम सिंहावह था। महाराज सिंहावह ने संसार से विरक्त होकर संवराचार्य से मुनिव्रत धारण किया। उत्कृष्ट संयम की परिपालना कर, अनशनपूर्वक देह त्यागकर वे सर्वार्थसिद्ध नामक पांचवें अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। सर्वार्थसिद्ध विमान का तैंतीस सागरोपम का सुखमय जीवन यापन करके प्रभु का जीव हस्तिनापुर के महाराज शूर की महारानी श्रीदेवी की रत्नकुक्षी में अवतरित हुआ। प्रभु के पुण्य प्रभाव को प्रदर्शित करने वाले चौदह महास्वप्न माता श्रीदेवी ने देखे। साथ ही उसने कुंथु नामक रत्नों की राशि भी स्वप्न में देखी। इसी के फलस्वरूप प्रभु के जन्म लेने पर उन्हें कुन्थुनाथ नाम प्रदान किया गया। कुन्थुनाथ युवा हुए तो अनेक सुन्दर राजकुमारियों के साथ उनका पाणिग्रहण कराया गया। आयुधशाला में चक्ररत्न के अवतरण के साथ ही उन्होंने दिग्विजय अभियान प्रारंभ किया, जिसमें 600 वर्ष लगे। षट्खण्ड को साधकर वे चक्रवर्ती बन गए। ___सैंतालीस हजार पांच सौ वर्षों तक सुशासन करने के पश्चात् वर्षीदान देकर प्रभु ने अभिनिष्क्रमण ... 102 .. ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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