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________________ भगवान महावीर चम्पानगरी में पधारे तो काली रानी भगवान के दर्शनों के लिए गई। उसने अपने पुत्र के बारे में भगवान से पूछा। भगवान ने स्पष्ट कर दिया कि उसका पुत्र युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो गया है। काली को बहुत दुख हुआ । पुत्र - विरह की वेदना से उसे वैराग्य हो आया और वह दीक्षित हो गई। दीक्षा लेकर उसने सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों तक का अध्ययन किया और विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े तप करने लगी। उसने अपने संयमी जीवन में विशेष रूप से रत्नावली तप की आराधना की । यह एक अति कठिन तप विधि है । इसमें चार परिपाटियां हैं। प्रत्येक परिपाटी में तीन सौ चौरासी दिन तपस्या के तथा अठासी दिन पारणे के होते हैं। दूसरी परिपाटी में काली आर्या ने विगय रहित पारणे किए, तृतीय परिपाटी में लेप- रहित पारणे किए तथा अन्तिम परिपाटी में पारणे में आयम्बिल की आराधना की। इस तप में कुल पांच वर्ष दो मास और अट्ठाइस दिन का समय लगा। इस उग्र तप से काली आर्या का शरीर सूख गया । वह चलती तो उसकी हड्डियों से ऐसी आवाज निकलती थी, जैसी आवाज शुष्क लकड़ियों से भरी चलती हुई गाड़ी से निकला करती है । अन्त में स्वयं के शरीर का पूरा-पूरा सम्यक् उपयोग हुआ जानकर काली आर्या ने अपनी गुरुणी आर्या चन्दनबाला की आज्ञा लेकर संथारा किया और अन्तिम श्वास के साथ केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गई। - अन्तगड सूत्र, वर्ग 8, अध्ययन 1 (ख) काली (आर्या ) प्रभु पार्श्व के धर्मतीर्थ की एक साध्वी । श्रमणी बनने से पूर्व वह अमलकल्पा नगरी के एक धनाढ्य सेठ की पुत्री थी। पर पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण उसके शरीर की संरचना ऐसी थी कि वह जवानी में वृद्धा दिखाई देती थी। फलतः कोई युवक उससे विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ। उन्हीं दिनों प्रभु पार्श्वनाथ अमलकल्पा नगरी में पधारे। कुमारी काली भी प्रभु की देशना सुनने के लिए गई। उसे प्रभु की देशना सुनकर वैराग्य हो गया और वह प्रव्रजित हो गई । आर्यिका पुष्पचूला जी के निर्देशन में उसने ज्ञानाराधना और तपसाधना शुरू की। पर कालान्तर में वह शरीर - बंकुशा - अपने शरीर की साता-सज्जा आदि का विशेष ध्यान रखने वाली बन गई। गुरुणी ने उसे पुनः पुनः प्रमाद के प्रति सचेत किया, पर काली ने गुरुणी की आज्ञानुसार आचरण नहीं किया । अन्ततः काली साध्वीसंघ से अलग रहकर साधना करने लगी। शरीर सज्जा के प्रति उसकी विशेष जागरूकता ने उसे संयम के प्रति अजागरूक बना दिया। अंत में वह शरीरबकुशाजन्य दोष की शुद्धि किए बिना ही अर्धमासिक संलेखना के साथ देहोत्सर्ग कर भवनपति की चमरचंचा राजधानी में देवी रूप में उत्पन्न हुई। किसी समय भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक उद्यान में विराजमान थे। काली देवी भगवान के समवसरण में आई। प्रभु की पर्युपासना कर उसने नाट्यविधि का प्रदर्शन किया और अपने स्थान पर लौट गई। गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान महावीर ने काली देवी का पूर्वभव सुनाया और साथ ही फरमाया कि कालीदेवी महाविदेह में जन्म लेकर संयम की आराधना कर सिद्धत्व प्राप्त करेगी । कालोदायी राजगृह के राजोद्यान गुणशीलक के निकट ही आश्रम में रहने वाला परिव्राजक, जो श्रमणोपासक मक से वार्ता में परास्त होकर जिनधर्म के प्रति उत्सुक बना और कालान्तर में श्रमणधर्म में प्रविष्ट भी हुआ । (देखिए-मद्रुक) (क) काश्यप ... 100 राजा के विद्वान पुरोहित और कपिल केवली के पिता । (देखिए कपिल केवली) →→→ जैन चरित्र कोश •••
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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