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________________ 445 लघुप्रयत्नतः ल-प्रत्याहारसूत्र XIV आचार्य पाणिनि द्वारा अपने चौदहवें अर्थात अन्तिम प्रत्याहारसूत्र में इत्सज्ञार्थ पठित वर्ण । ल... - VII. 1.2 'देखें-बान्तस्य VII. ii.2 ल-प्रत्याहारसूत्र VI भगवान् पाणिनि द्वारा अपने छठे प्रत्याहारसूत्र में पठित वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी में पठित वर्णमाला का चौदहवां वर्ण। . ल... -I.ii.8 . . देखें-लशकु I. iii. 8 ल... -II. iii.69 देखें-लोकाव्ययनिष्ठा0 II. iii.69 लः -I. iv.98 __ लादेश (परस्मैपदसंज्ञक होते हैं)।। ल: -III. iv.69. (सकर्मक धातुओं से) लकार (कर्मकारक में होते हैं चकार से कर्ता में भी होते है और अकर्मक धातुओं से भाव में होते है तथा चकार से कर्ता में भी होते है)। लः -VIII. ii. 18 - (कृप धातु के रेफ को) लकारादेश होता है। लक्षण... -I. iv. 89 देखें-लक्षणेत्यम्भूताख्यानभाग I. iv. 89 लक्षण... - III. ii. 126 देखें- लक्षणहेत्वोः III. ii. 126 ...लक्षण...-IV.i.70 देखें-संहितशफलक्षण IV.i. 70 ...लक्षण... -IV.i. 152 देखें-सेनान्तलक्षण IV.i. 152 लक्षणस्य-VI. iii. 114 . कर्ण शब्द उत्तरपट रहते विश अपन पक्षन मणि भिन्न छिन्न, छिद्र, स्रुव, स्वस्तिक - इन शब्दों को छोड़कर) लक्षणवाची शब्दों के (अण् को दीर्घ होता है, संहिता के विषय में)। ...लक्षणात् - VI. ii. 112 देखें-वर्णलक्षणात् VI. ii. 112 लक्षणे-I.iv.83 लक्षण द्योतित हो रहा हो तो (अनु शब्द कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। लक्षणे -III. ii. 52 लक्षणवाची (कर्ता) अभिधेय होने पर (जाया और पति कर्म उपपद रहते 'हन' धातु से 'टक' प्रत्यय होता है)। लक्षणेन - II.i. 13 लक्षण चिह्न वाची (सुबन्त) के साथ (आभिमुख्य अर्थ में वर्तमान अभि और प्रति का विकल्प से समास होता है और वह अव्ययीभावसंज्ञक होता है)। ...लक्षणेषु - IV.iti. 126 देखें-संघाइकलक्षणेषु IV. iii. 126 ...लग्न... - VII. ii. 18 देखें-क्षुब्धस्वान्त VII. ii. 18 लघु-I. iv. 10 (हस्व अक्षर की) लघु संज्ञा होती है। लघुनि - VII. iv. 93 (चङ्परक णि के परे रहते अङ्ग के अभ्यास को) लघु धात्वक्षर परे रहते (सन के समान कार्य होता है.यदि अङ्ग के अक् प्रत्याहार का लोप न हुआ हो तो)। लघुपूर्वात् - V. 1. 130 (षष्ठीसमर्थ) लघु = ह्रस्व अक्षर पूर्व में है जिसके, ऐसे (इक् = इ, उ,ऋ,ल अन्तवाले) प्रातिपदिक से (भी भाव और कर्म अर्थों में अण प्रत्यय होता है)। लघुपूर्वात् - VI. iv.56 लघु = ह्रस्व अक्षर है पूर्व में जिससे, ऐसे वर्ण से उत्तर (णि के स्थान में ल्यप् परे रहते अयादेश हो जाता है)। लघुप्रयत्लतरः - VIII. iii. 18 (भोः,भगो,अघो तथा अवर्ण पूर्व वाले पदान्त के वकार, यकार को) लघुप्रयत्नतर आदेश होता है, (शाकटायन यकार का) लघुप्रयलतर आदश हाता ह, ( आचार्य के मत में)। उच्चारण में तालु आदि स्थान तथा जिह्वामूलादि की शिथिलता अर्थात् जिसके उच्चारण में थोड़ा बल पड़े, वह लघुप्रयत्नतर कहलाता है।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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