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________________ प्रयोजन... . 379 ....प्रशास्तृणाम् प्रयोजन.. -IV.ii. 55 ...प्रवृद्धेषु -VI. ii. 38 देखें-प्रयोजनयोधभ्यः IV. 1.55 देखें-बीहापराहण. VI. ii. 38 प्रयोजनम् -V.i. 108 प्रशस्यस्य -V. 1.60 प्रयोजन-समानाधिकरणवाची (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्रशस्य शब्द के स्थान में (अजादि अर्थात् इष्ठन,ईयसुन से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय परे रहते श्र आदेश होता है)। प्रयोजनयोधुभ्य: - IV.ii. 55 प्रशस्ये - IV: iv. 122 (प्रथमासमर्थ) प्रयोजन और योद्धा (के साथ समाना (षष्ठीसमर्थ रेवती,जगती तथा हविष्या प्रातिपदिकों से) धिकरण वाले)प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में समाम अभि प्रशस्य = प्रशंसा के योग्य अर्थ में (वैदिक प्रयोग में धेय हो तो यथाविहित अण प्रत्यय होता है)। यत् प्रत्यय होता है)। ...प्रयोजनात् -v.ii. 81 ...प्रशंसयोः -III. 1. 86 देखें-कालप्रयोजनात् v. ii. 81 देखें - गणप्रशंसयोः III. iii. 86 प्रयोज्य.. - VII. iii. 68 ...प्रेशसयोः -v.ii. 120 देखें - प्रयोज्यनियोज्यौ VII. iii. 68 देखें-आहतप्रशंसयो: V. ii. 120 प्रयोज्यनियोज्यौ-vii. iii. 68 प्रशंसायाम् - III. I. 133 प्रयोज्य तथा नियोज्य ण्यत् प्रत्ययान्त शब्द (शक्य अर्थ (अर्ह धातु से) प्रशंसा गम्यमान हो तो (वर्तमान काल में निपातन किये जाते हैं)। में शतृ प्रत्यय होता है)। . प्रलम्भने -1. iii. 69 प्रशंसायाम् - V. iii. 66 प्रलम्भन = ठगने अर्थ में (ण्यन्त गृधु, वचु धातुओं। ' 'प्रशंसा-विशिष्ट' अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक तथा से आत्मनेपद होता है)। तिङन्त से स्वार्थ में रूपप प्रत्यय होता है)। ...प्रलयानाम् - VII. iii. 2 : : देखें-केकयमित्रयु० VII. iii.2 प्रशंसायाम् - V.iv.40 - ...प्रवक्त... -II.1.64, प्रंशसा-विशिष्ट अर्थ में (वर्तमान मद प्रातिपदिक से .देखें-पोटायुवतिस्तोक II.1.64 स्वार्थ में स तथा स्न प्रत्यय होते हैं)। ....प्रक्च...-VII. iii.66 प्रशंसायाम् -VI. ii.63 देखें-यजयाच VII. iii. 66 प्रशंसा गम्यमान हो तो शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते . ...प्रवचनीय..-III. iv. 68 राजन् पूर्वपद वाले शब्द को भी विकल्प से प्रकृतिस्वर देखें- भव्यगेय III. iv. 68 होता है)। ....प्रवति... - VII. iv. 81 प्रशंसायाम् - VII.1.66 देखें-स्त्रवतिशृणोति VII. iv. 81 प्रशंसा गम्यमान होने पर (उप उपसर्ग से उत्तर लभ ...प्रवय्ये-VI.i.80 अङ्ग को यकारादि प्रत्यय के विषय में नम आगम होता देखें- भय्यप्रवय्ये VI.1.80 प्रवाहणस्य-VII. iii. 28 प्रवाहण अङग के (उत्तरपद के अचों में आदि अच को प्रशंसावचने: -II.1.65 नित्य वृद्धि होती है,पूर्वपद को तो विकल्प से होती है, (जातिवाची सुबन्त) प्रशंसावाची (समानाधिकरण समर्थ ढ तद्धित प्रत्यय परे रहते)। सुबन्त) शब्दों के साथ (भी विकल्प से समास को प्राप्त प्रपखादीनाम् - VI. ii. 147 होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। प्रवृद्धादियों के (क्तान्त उत्तरपद को भी अन्तोदात्त होता ...प्रशास्तृणाम् -VI. iv. 11 देखें-अप्यन्त VI. iv. 11
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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