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________________ पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि 368 पूर्वस्य । पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि - I. 1. 33 . पूर्वविधौ -I. 1. 56 पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर शब्द (जस्- पूर्व को विधि करने में (परनिमित्तक आदेश स्थानिवत् सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनामसंज्ञक होते हैं, यदि होता है)। संज्ञा से भिन्न व्यवस्था हो तो)। पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः - II. 1. 30 पूर्वम् -II. 1.30 (तृतीयान्त सुबन्त का) पूर्व, सदृश, सम,ऊनार्थ,कलह, . . (समास में उपसर्जनसंज्ञक का) पूर्व प्रयोग होता है। निपुण, मिश्र, श्लक्ष्ण - इन (सुबन्तों) के साथ (विकल्प पूर्वम् - VI. i. 186 से समास हो जाता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता (भी, ही, भू, हु, मद,जन, धन,दरिद्रा तथा जागृ धातु के अभ्यस्त को पित् लसार्वधातुक परे रहते प्रत्यय से) पूर्व ...पूर्वसवर्ण... - VII. 1. 39 को (उदात्त होता है)। देखें - सुलुक्० VII. 1. 39 पूर्वसवर्ण: - VI. 1. 98 पूर्वम् - VI.i. 213 (अक प्रत्याहार के पश्चात् प्रथमा और द्वितीया । (मतुप से) पूर्व (आकार को उदात्त होता है, यदि वह विभक्ति के अच् के परे रहते पूर्व,पर के स्थान में पूर्व) मत्वन्त शब्द स्त्रीलिङ्ग में समाविषयक हो तो)। जो वर्ण,उसका सवर्ण (दीर्घ एकादेश) हो जाता है। पूर्वम् - VI. ii. 83 पूर्वस्मिन् - III. iv.4 (ज' उत्तरपद रहते बहुत अच् वाले पूर्वपद के अन्त्य पूर्व के लोट-विधायक सूत्र में (जिस धातु से लोट् का अक्षर से) पूर्व को (उदात्त होता है)। विधान किया गया हो, पश्चात् उसी धातु का अनुप्रयोग पूर्वम् - VI. ii. 173 होता है)। (नञ् तथा सु से उत्तर उत्तरपद के कप् के परे रहते) पूर्वस्य -I.i.65 उससे पूर्व को (उदात्त होता है)। (सप्तमी विभक्ति से निर्देश किया हुआ.जो शब्द,उससे पूर्वम् - VI. 1. 174 अव्यवहित) पूर्व को कार्य होता है। (नज तथा स से उत्तर बहुव्रीहि समास में हस्वान्त उत्त पूर्वस्य - I. iv. 400 रपद में अन्त्य से) पूर्व को (उदात्त होता है,कप् परे रहते)। (प्रति एवं आपूर्वक श्रु धातु के प्रयोग में) पूर्व का (जो पूर्वम् - VIII.i.72 कर्ता, वह कारक सम्प्रदान-संज्ञक होता है)। किसी पद से) पूर्व (आमन्त्रितसञ्जक पद हो तो वह पर्वस्य -VI.ili. 110 आमन्त्रितपद अविद्यमान के समान माना जावे)। (ढ एवं रेफ को लोप हुआ है जिसके कारण, उसके परे पूर्वम् - VIII. ii. 98 रहते) पूर्व के (अण् को दीर्घ होता है)। (विचार्यमाण वाक्यों के पूर्ववाले वाक्य की टि को ही पूर्वस्य - VI. iv. 156 भाषाविषय में प्लुत उदात्त ोता है)। (स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र-इन अङ्गों का पर पूर्ववत् - I. iii. 61 जो यणादि भाग,उसका लोप होता है; इष्ठन् इमनिच् और (सन प्रत्यय के आने से पूर्व जो धातु आत्मनेपदी रही ईयसुन परे रहते तथा उस यणादि से) पूर्व को (गुण होता हो,उससे सन्नन्त होने पर भी) पूर्व के समान (आत्मनेपद है)। होता है)। पूर्वस्य - VII. iii. 26 पूर्ववत् - II. iv. 27 (अर्ध शब्द से उत्तर परिमाणवाची उत्तरपद के अचों में पूर्व के समान (लिङ्ग होता है, अश्व और वडवा का आदि अच् को वृद्धि होती है) पूर्वपद को (तो विकल्प से द्वन्द्व समास करने पर)। होती है; जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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