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________________ परक्षेत्रे 350 परस्मैपदेषु : परक्षेत्रे - V. ii. 92 (क्षेत्रियच शब्द का निपातन किया जाता है), दूसरे क्षेत्र = शरीर में चिकित्सा किये जाने योग्य अर्थ में)। परम् -I. iv. 2 (विप्रतिषेध = तुल्यबलविरोध होने पर) बाद वाले सूत्र से कथित (कार्य होता है)। परम् - II. ii. 31 (राजदन्तादि-गणपठित शब्दों में उपसर्जन का) बाद में प्रयोग होता है। परम् - VIII. 1.2 (उस द्वित्व किये हुये के) पर वाले शब्द की (आमेडित सजा होती है)। ...परम...-II.1.60 देखें-सन्महत्परमो० II.1.60 परम = सबसे अधिक दूर,प्रमुख, सबसे अधिक ऊँचा, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। .....परमे... - VIII. iii.97 देखें - अम्बाम्बगोभूमि० VIII. ii. 97 ...परम्पर... - V.II. 10 देखें - परोवरपरम्पर० V. 1. 10 परयोः -III. 1. 39 देखें-द्विवत्परयोः III. 1.39 ...परयोः - VI.i. 81 देखें - पूर्वपरयो: VI. 1. 81 पररूपम् - VI. 1. 90 . (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर एङ आदिवाले धात के परे रहते पूर्व,पर के स्थान में) पररूप एकादेश होता है। परवत् -II. iv. 26 पर = उत्तरपद के समान (लिङ्ग होता है. दन्द्र और तत्प- रुष का)। ...परशव्ययोः - IV. iii. 165 देखें - कंसीयपरशव्ययो: IV. iii. 165. परश्वधात् - IV. iv. 58 (प्रहरण समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) परश्वध प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है और चकार से ठक भी)। परश्वध = कुल्हाड़ी,कुठार। परसवर्ण: - VIII. iv. 57 (अनुस्वार को यय् प्रत्याहारस्थ वर्ण परे रहते) परसवर्ण आदेश होता है । परस्मिन् -I.1.56 परनिमित्तक (अजादेश, पूर्व को विधि करने में स्थानिवत् हो जाता है)। परस्मिन् – III. iii. 138 (भविष्यत्काल में) पहले भाग की (मर्यादा को कहना हो तो अनद्यतन की तरह प्रत्ययविधि विकल्प से नहीं होती, यदि वह कालविभाग अहोरात्रसम्बन्धी न हो तो)। परस्मैपदम् -I. iii. 78 (जिन धातुओं से जिस विशेषण द्वारा आत्मनेपद का विधान किया है, उनसे अवशिष्ट धातुओं से कर्तृवाच्य में) परस्मैपद होता है। परस्मैपदम् -I.iv.98 (लादेश) परस्मैपदसंज्ञक होते हैं। परस्मैपदम् -III.1.90 . (कुष और रक्षा धातुओं से कर्मवद्भाव में श्यन् प्रत्यय और) परस्मैपद होता है, (प्राचीन आचार्यों के मत में)। परस्मैपदानाम् - III. iv. 82 (लिट् लकार के) परस्मैपदसंज्ञक जो तिबादि आदेश, उनके स्थान में (यथासङ्ख्य करके णल,अतुस,उस्, थल, अथुस, अ,णल.व,म- ये आदेश हो जाते हैं)। . परस्मैपदेषु - II. iv.77 परस्मैपद परे रहते (गा,स्था,घुसज्ञक धातु,पा और भू - इन धातुओं से उत्तर सिच् का लुक होता है)। परस्मैपदेषु -III.1.55 (कर्तृवाची लु) परस्मैपद परे रहते (पुषादि,धुतादि और लदित् धातुओं से उत्तर च्लि को 'अङ्' आदेश होता है)।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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