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________________ 231 च - VI. 1. 58 (उपदेश में जो अनुदात्त) तथा (ऋकार उपधावाली धातु, उसको अम् आगम विकल्प से होता है; झलादि प्रत्यय परे रहते) । च - VI. 1. 60 ( यकारादि तद्धित के परे रहते) भी (शिरस् को शीर्षन् आदेश हो जाता है) । च - VI. 1. 71 (छकार परे रहते) भी (ह्रस्वान्त को तुक् का आगम होता है। च - VI. 1. 72 (आङ् तथा माङ् को) भी (छकार परे रहते तुक् का आगम होता है, संहिता के विषय में)। . च - VI. 1. 80 (भय्य तथा प्रवय्य शब्द) भी (निपातन किये जाते हैं, वेद-विषय में)। च - VI. 1. 82 (एकः पूर्वपरयोः' के अधिकार में जो पूर्वपर को एकादेश कहा है, वह एकादेश, पूर्व से कार्य पड़ने पर पूर्व के अन्त के समान माना जाये), तथा (पर से कार्य करने पर पर के आदि के समान माना जाये) । - VI. 1. 87 (आद से उत्तर) भी (जो अच् तथा अच् से पूर्व जो आट्, इन दोनों पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 92 (अवर्ण से उत्तर ओम् तथा आङ् परे रहते) भी (पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है)। च - VI. 1. 101 (दीर्घ वर्ण से उत्तर जस्) तथा चकार से, इच् परे रहते (पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है)। च - VI. 1. 104 (सम्प्रसारण वर्ण से उत्तर अच् परे हो तो) भी (पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है)। च - VI. 1. 106 (एड् से उत्तर ङसि तथा ङस् का अकार हो तो) भी (पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 110 (हश् प्रत्याहार परे रहते) भी (अकार से उत्तर रु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में ) । च - VI. 1. 112 (अव्यात्, अवद्यात्, अवक्रमु, अव्रत, अयम्, अवन्तु, अवस्यु - इन शब्दों में जो अकार, उसके परे रहते पाद के मध्य में जो एड्, उसको) भी (प्रकृतिभाव हो जाता है)। च - VI. 1. 115 (यजुर्वेदविषय में अङ्ग शब्द में जो एङ, उसको अकार के परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है), तथा (उस अङ्ग शब्द के आदि में जो अकार, उसके परे रहते पूर्व एड् को प्रकृतिभाव होता है)। च - VI. 1. 116 (यजुर्वेदविषय में कवर्ग, धकारपरक अनुदात्त अकार के परे रहते) भी (एड् को प्रकृतिभाव होता है) । च - VI. 1. 117 (अवपथाः शब्द में) भी (जो अनुदात्त अकार, उसके परे रहते यजुर्वेदविषय में एङ् को प्रकृतिभाव होता है) । च - VI. 1. 120 (इन्द्र शब्द में स्थित अच् के परे रहते) भी (गो को अवङ् आदेश होता है)। च - VI. 1. 123 (असवर्ण अच् परे हो तो इक् को शाकल्य आचार्य के मत में प्रकृतिभाव हो जाता है), तथा (उस इक् के स्थान में ह्रस्व भी हो जाता है)। च - VI. 1. 133 (समुदाय अर्थ में) भी (कृ धातु परे रहते सम् तथा परि उत्तर कार से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 136 (उप) तथा (प्रति उपसर्ग से उत्तर 'कृ विक्षेपे' धातु के परे रहते हिंसा के विषय में ककार से सुट् आगम होता है, संहिता के विषय में) ।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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