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________________ "निरक्त कोश ३०७ १६२७. सायाणुग (सातानुग) सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा। (सूचू १ पृ ७०) जो साता/सुख का अनुगमन करते हैं, वे सांतानुग/सुविधा वादी हैं। १६२८. सारुविय (सारूपिक) समानं रूपं सरूपं तेन चरतीति सारूपिकः। (व्यभा ४/३ टी प २६) साधु के सदृश वेश धारण कर जो साधु जैसा आचरण करता है, वह सारूपिक मुनि और गृहस्थ के बीच की अवस्था वाला साधक है। १६२९. सावग (श्रावक) श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सुप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावक इति भवति । (स्थाटी प २७२) श्रा/वह व्यक्ति जो श्रद्धा को पार तक ले जाता है, व/जो धनबीज का विभिन्न क्षेत्रों में वपन करता है, क जो क्लिष्ट कर्मों को नष्ट करता है अर्थात् जो श्रद्धालु, दानी और कर्मक्षय में निपुण है, वह श्रावक है। श्रावयतीति श्रावकः। (दश्रुचू प ३५) जो सुनाता है, वह श्रावक है । शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां सामाचारीमिति श्रावकः । (अनुद्वामटी प २७) जो साधुओं के पास आचारविधि को सुनता है, वह श्रावक १६३०. सावज्ज (सावद्य) अवज्ज–गरहितं, सह तेण सावज्जो। जो अवद्य/पापयुक्त है, वह सावध है । (दअचू पृ १७५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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