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________________ निरक्त कोश २७५ १४५७. वेअड्ड (वैताढ्य) भरतक्षेत्रस्य द्वे अर्धे करोतीति वैताड्डयः। ___ जो भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध के रूप में विभक्त करता है, वह वैताड्ढ्य (पर्वत) है। वैताडगिरिकुमारोऽत्र देवो महद्धिको परिवसति तेन वैताड्ढ्यः । (जंटी प ८४) जहां वैताड्डयगिरिकुमार नामक ऋद्धि-संपन्न देव निवास करता है, वह वैताड्ढय् (पर्वत) है। १४५८. वेउम्विय (वैकुर्विक) विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । जिसमें विविध या विशिष्ट क्रिया रूपनिर्माण किया जाता है, वह वैक्रिय है ! विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वा वैकुर्विकम् । (अनुद्वामटी प १८१) विशिष्ट लब्धिसंपन्न व्यक्ति जिस क्रिया को करते हैं, वह वैक्रिय है। १४५६. वेणइय (वैनयिक) . विनयमहन्तीति वैनायिकाः। (व्यभा ४/२ टी प ३६) जो विनय आचार में निपुण होते हैं, वे वैनयिक/आचार्य आदि हैं। ____ जो विनय के योग्य हैं, वे वैनयिक आचार्य आदि हैं। १४६०. वेणइय (वैनयिक) विनयेन चरन्तीति वैनायिकाः । (प्रसाटी प ३४५) जो विनय के द्वारा आजीविका प्राप्त करते हैं, वे वैनयिक विनयवादी है। १४६१. वेतालिय (वैदालिक) विदालयतीति वेदालिकः। (सूचू १ पृ ५८) जो (कर्मों को) विदारित करता है, वह वैदालिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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