SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ १०६७. पासत्थ (पार्श्वस्थ ) पार्श्वे - बहिर्ज्ञानादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । ( स्थाटी प ४६१ ) जो ज्ञान आदि से पार्श्व / बाहर रहता है, वह पार्श्वस्थ है । १०६८. पासत्थ (पाशस्थ ) मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशाः पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थः । ( आवहाटी २१८ ) जो मिथ्यात्व आदि के पाश में बंधा हुआ है, पार्श्वस्थ है | वह पाशस्थ १०६६. पासत्य ( प्रास्वस्थ ) प्रकर्षेणासमन्तात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतया स्वस्थः प्रास्वस्थः । १०७०. पासवण ( प्रश्रवण ) पसवइत्ति पासवणं ।' जो संपूर्ण रूप से ज्ञान आदि के विषय में अस्वस्थ है, वह प्रास्वस्थ / पार्श्वस्थ है । १०७१. पासवण ( प्रश्रवण ) निरुक्त कोश: ( आनि ३२१ ) ( जीतभा ६८७ ) पायं सवती जम्हा, तम्हा तू होति पासवणं । जो प्रस्रवित होता है, वह प्रस्रवण / मूत्र है । प्रश्रवति-क्षरतीति प्रश्रवणः । ( व्यभा ३ टीप १११) है । १०७२. पासा ( प्रासाद ) (भटी प १४२ ) जो प्रश्रवित होता है / बहता है, वह प्रश्रवण / प्रस्यन्दन / भरना Jain Education International पसीदंति जम्मि जणस्स मणो णयणाणि सो पासादो । (दअचू पृ १७१) जिसमें व्यक्ति के नयन और मन प्रसन्न होते हैं, वह प्रासाद है । १. प्रकर्षेण श्रवतीति प्रश्रवणम् - एकिका । ( आटी प ४०६ ) -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy