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________________ १७२ निरुक्त कोश जो संपूर्णरूप से कल्प / आचार का प्रतिपादन करता है, वह प्रकल्प / निशीथसूत्र है । ८२. किरण ( प्रकिरण ) प्रदातुं कीर्यते विक्षिप्यते इति प्रकिरणम् ।' फलदान के लिए जिसे बिखेरा जाता है, है । ८३. पकुव्वय ( प्रकारिन् ) यः शुद्धि प्रकर्षेण कारयति स प्रकारीति । जो प्रकृष्ट रूप से शुद्धि करता है, दाता है । ८४. पकुव्वि ( प्रकुविन्) प्रकुर्वतीत्येवंशीलः प्रकुर्वी ।' ( व्यभा ३ टीप १८ ) जो उचित प्रायश्चित्त के द्वारा दोषसेवी की विशुद्धि करता है, वह प्रकुर्वी / आचार्य है । ८५. पक्खि (पक्षिन् ) पक्खा तेसि संतोति पक्खिणो । जिनके पक्ष / पंख हैं, वे पक्षी हैं । ८६. पग्गह (प्रग्रह) (व्यभा १ टीप ५) वह प्रकिरण / वपन ( स्थाटी प ४०६ ) वह प्रकारी / प्रायश्चित्त Jain Education International प्रगृह्यते - उपादीयते आदेयवचनत्वाद्यः स प्रग्रहः । ( स्थाटी प ३ ) आदेयवचन के कारण जिसका प्रग्रहण / स्वीकरण किया जाता है, वह प्रग्रह / सर्वमान्य नायक है । ( आचू पृ ३१४ ) १. प्र शब्दोऽत्र दाने । ( व्यभा १ टीप ५) २. कुर्व इत्यागम प्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः । आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानत आलोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति स प्रकुर्वी । ( व्यभा ३ प १८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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