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________________ १२० निरुक्त कोश ६१८. ठियप्प (स्थितात्मन्) णाणदंणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा ! (दजिचू पृ ३४७) जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित है, वह स्थितात्मा ६१६. णंद (नन्द) नन्दति--समृद्धो भवतीति नन्दः । (औटी पृ १३६) जो समृद्ध होता है, वह नन्द पुत्र है । ६२०. णंदण (नन्दन) नन्दन्ति तत्रेति नन्दनं । (सूचू १ पृ १४७) गंदंति जेण वणयर-जोतिस-भवण-वेमाणिया विज्जाहरमणुया य तेण णंदणं । (नंचू पृ ५) जहां व्यंतर, ज्योतिष्क, भवनपति, वैमानिक, विद्याधर और मनुष्य आनन्द मनाते हैं, वह नंदन (वन) है। ६२१. गंदा (नन्दा) नन्दयति-समृद्धि नयतीति नन्दा।। (प्रटी प १०३) जो समृद्धि की ओर ले जाती है, वह नन्दा/अहिंसा है । ६२२. गंदी (नन्दी) नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भव्यप्राणिनोऽनयेति नन्दी। (विभामहेटी १ पृ ४४) जिससे प्राणी समृद्धि को प्राप्त होते हैं, वह नंदी/ज्ञान है। ६२३. णक्खत्त (नक्षत्र) ___ न क्षयं यान्तीति नक्षत्राणि । (सूचू १ पृ २००) जिनका क्षय नहीं होता, वे नक्षत्र हैं। १. 'नक्षत्र' के अन्य निरुक्तनक्षति गच्छति व्योमनीति नक्षत्रं । न क्षदति प्रभामिति नक्षत्रम् । (अचि पृ २४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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