SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ ६०६. जोगवाहि ( योगवाहिन) श्रुतोपधान कारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही । ( स्थाटी प ४९१ ) जो योग / तपोयोग और समाधियोग से जीवनयापन करता है, वह योगवाही है । ६०७. जोणि (योनि) जणीति जोणिः । जो पैदा करती है, वह योनि है । यौति - मिश्रीभवति असुमान् यासु ता योनयः । जिनमें जीव सम्मिश्रित होता है, वे योनियां हैं । युवन्ति - तेजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त स्थल हैं । औदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यास्यामिति योनिः । ( नंटी पृ ३ ) जिसमें विविध शरीरों का मिश्रण होता है, वह योनि है । आसु जन्तवो जुषन्ते सेवन्ते ता इति वा योनयः । ( उशाटी प १८३ ) a जिनमें बार-बार आते हैं, रहते हैं, वे योनियां / उत्पत्ति ६०८. भरग ( स्मारक / ध्याता ) निरुक्त कोश सुत्थेय मणसा झायंतोज्भरको । ' ( उच्च पृ १६५ ) ( नंचू पृ८ ) जो सूत्र और अर्थ का मन से चिंतन करता है, वह स्मारक ( स्मरण करने वाला ) है । ६०६. काण ( ध्यान ) ध्यायते -- चिन्त्यते वस्त्वनेनेति ध्यातिर्वा ध्यानम् । ( प्रसादी प ६८ ) जिसके द्वारा वस्तु का चिंतन किया जाता है, वह ध्यान है । ६१०. सिर ( शुषिर ) भुषे: - शोषस्य दानात् शुषिरम् । १. स्मरेर्भरभूर Jain Education International For Private & Personal Use Only जो शोष - पोलापन है, वह शुषिर / आकाश है । 1 (प्रा ४ /७४) (भटी पृ १४३१). www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy