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अवगत न हो, उसका निर्वचन प्रकरण या परिचायक किसी अन्यपद के आधार पर किया जा सकता है । इसीलिए यास्क ने कहा है--नैकपदानि निब्रूयात् । यथा भ्रांत, भवान्त, भयान्त, भजन्त भदन्त, भांत, भ्राजन्त आदि सभी शब्दों का प्रकरण से भगवान् अर्थ किया गया है ।
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५. भाषा की स्वच्छंद प्रवृत्ति को ध्यान में रखना आवश्यक है । नैरुक्त के लिए यह आवश्यक है कि वह शब्द प्रयोग में लोगों की सामान्य प्रवृत्तियों से परिचित रहे । यथा - पवा । 'पिबिस्संति पेहियादि सा पवा'--- जहां पथिक पानी पीते हैं, वह प्याऊ है ।
६. नैरुक्त को व्याकरणशास्त्र से अभिज्ञ होते हुए भी वैयाकरण नहीं होना चाहिए । यथा - जुवाण | 'यौवनस्थोऽ हमित्यात्मानं मन्यते यः भवति जुवाणी | व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता होते हुए भी यहां चूर्णिकार ने किसी प्रकार की धातु का निर्देश नहीं किया है ।
७. शब्दों की प्रवृत्ति किसी अर्थ में सर्वत्र व्युत्पत्ति के अनुसार नहीं M होती है । सामान्य नियम के अनुसार पदों के अर्थ विकसित होते हैं । यथाशूर ।' शवत्यसौ युद्धं मुंचति वा तमिति शूर : - जो युद्ध में शक्ति - प्रयोग करता है, वह शूर है । यहां 'मुच्' धातु का 'शू' धातु से कोई संबंध नहीं है ।
पाणिनी से पूर्व युग में निरुक्तशास्त्र के प्रति विद्वानों में विशेष आदर था। प्रारंभिक काल में निरुक्तशास्त्र का विषय केवल वैदिक देवविद्या की सेवा करना था । यास्क ने देव शब्द के निर्वचन द्वारा देवताओं के स्वरूप की व्याख्या इस प्रकार की है - ' देवदानात् वा, दीपनात् वा, द्योतनात् वा, स्थानो भवतीति वा । इसी प्रकार शाकपूणि के अनुसार अग्नि देवता का निरूपण तीन धातुओं से किया गया है । इ धातु से अ, अ या दह धातु से ग, नी धातु सेनि गृहीत है । अग्निदेवता इन तीन क्रियाओं को करता है अतः इसे देवता कहा गया है । इन निर्वचनों द्वारा वेदों में वर्णित देवताओं के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । वैदिक देवताओं पर कई पाश्चात्य विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है । निरुक्तशास्त्रों द्वारा भी हम देवताओं के सही रूप को हृदयंगम कर सकते हैं। परन्तु आगे चलकर इसका मुख्य उद्देश्य भाषाशास्त्रीययोग में परिणित हो गया । यद्यपि वह सदैव अर्थ - प्रधान ही रहा, न कि व्याकरण की तरह शब्द प्रधान ।
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