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________________ आत्मपुराण- आत्मस्वरूप (१) मुख्य प्राण ( अचेतन श्वास-प्रश्वास ) (२) मन ( इन्द्रियों की संवेदना को ग्रहण करने का केन्द्र या माध्यम) (३) इन्द्रियाँ ( कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय ) (४) स्थूल शरीर और (५) इन्द्रियों का विषय स्थूल जगत् । ज्ञान के द्वारा बाह्य जगत् का मिथ्यात्व तथा ब्रह्म से अपना अभेद समझने पर उपाधियों से आत्मा मुक्त होकर पुनः अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेता है। आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। उपनिषदों में इनका विस्तृत वर्णन है । ये निम्नाकित हैं : (१) असमय कोष (स्थूल शरीर ) (२) प्राणमय कोष ( श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है) (३) मनोमय कोष (संकल्प-विकल्प करने वाला), (४) विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और (५) आनन्दमय कोष ( दुःखों से मुक्ति और प्रसाद उत्पन्न करने वाला) । आत्मचेतना में आत्मा की गति स्थूल कोपों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है । किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है । इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की 'चार' अवस्थाएं होती हैं : ( १ ) जाग्रत् ( जागने की स्थिति, जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने विषयों में रमण करती रहती हैं) (२) स्वप्न ( वह स्थिति जिसमें इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं, किन्तु मन काम करता रहता है और अपने संसार की स्वयं सृष्टि कर लेता है) (३) सुषुप्ति ( वह स्थिति, जिसमें मन भी सो जाता है, स्वप्न नहीं आता किन्तु जागने पर यह स्मृति बनी रहती है कि नींद अच्छी तरह आयी) और (४) तुरीया ( वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की सम्पूर्ण स्मृतियाँ समाप्त हो जाती हैं ।) आत्मा की तीन मुख्य स्थितियाँ हैं - (१) बद्ध, (२) मुमुक्षु और (३) मुक्त बद्धावस्था में वह संसार से लिप्त रहता है । मुमुक्षु की अवस्था में वह संसार से विरक्त और मोक्ष की ओर उन्मुख रहता है । मुक्तावस्था में वह Jain Education International ७७ अविद्या और अज्ञान से छूटकर अपने स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है । किन्तु मुक्तावस्था की भी दो स्थितियाँ हैं— (१) जीवन्मुक्ति और (२) विदेहमुक्ति जब तक मनुष्य का शरीर है वह प्रारब्ध कर्मों का फल भोगता है, जब तक भोग समाप्त नहीं होते, शरीर चलता रहता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्ति के साथ पालन करता रहता है; ज्ञानमूलक होने से वे आत्मा के लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते । सगुणोपासक भक्त दार्शनिकों की माया, बन्ध और मोक्ष सम्बन्धी कल्पनाएँ निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गियों से भिन्न है भगवान् से जीवात्मा का वियोग बन्ध है । भक्ति द्वारा जब भगवान् का प्रसाद प्राप्त होता है और जब भक्त का भगवान् से सायुज्य हो जाता है तब बन्ध समाप्त हो जाता है । वे सायुज्य, सामीप्य अथवा सालोक्य चाहते हैं, अपना पूर्णविलय नहीं, क्योंकि विलय होने पर भगवान् के सायुज्य का आनन्द कौन उठायेगा ? उनके मत में भगवन्निष्ठ होना ही आत्मनिष्ठ होना है । आत्मपुराण-परिव्राजकाचार्य स्वामी शङ्करानन्दकृत यह ग्रन्थ अद्वैत साहित्य जगत् का अमूल्य रत्न है। इसमें अद्वैतवाद के प्रायः सभी सिद्धान्त और श्रुति - रहस्य, योगसाधन रहस्य आदि बातें बड़ी सरल और श्लोकबद्ध भाषा में संवाद रूप से समझायी गयी है। सुप्रसिद्ध 'पंचदशी' ग्रन्थ के आरम्भ में विद्यारण्य स्वामी गुरु रूप में जिनका स्मरण करते हैं, संभवतः ये वही महात्मा शंकरानन्द हैं । आत्मपुराण में कावेरी तट का उल्लेख है, अतः ये दाक्षिणात्य रहे होंगे । इस रोचक ग्रन्थ की विशद व्याख्या भी काशी के प्रौढ़ विद्वान् पं० काकाराम शास्त्री ( कश्मीरी ) ने प्रायः सवा सौ वर्ष पूर्व रची थी । आत्मबोध-स्वामी शङ्कराचार्यरचित एक छोटा सा प्राथमिक अद्वैतवादी ग्रन्थ | आत्मबोधोपनिषद् - इस उपनिषद् में अष्टाक्षर 'ओम् नमो नारायणाय' मन्त्र की व्याख्या की गयी है। आत्मानुभूति की सभी प्रक्रियाओं का विशद वर्णन इसमें पाया जाता है । आत्मविद्याविलास श्री सदाशिवेन्द्र सरस्वती-रचित अठा रहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ । इसकी भाषा सरल एवं भावपूर्ण है। अध्यात्मविद्या का इसमें विस्तृत और विशद विवेचन किया गया है। आत्मस्वरूप -- नरसिंहस्वरूप के शिष्य तथा प्रसिद्ध दार्शनिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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