SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ आज्ञासंक्रान्ति-आत्मा ८ मिश्रित एवं ५ समय या शुभ तन्त्रों की भी गणना की है । मिश्रित तन्त्रों के अनुसार देवी की अर्चना करने पर साधक के दोनों उद्देश्य ( भोग एवं मोक्ष, पार्थिव सुख एवं मुक्ति ) पूरे होते हैं, जब कि समय या शुभ तन्त्रानुसारी अर्चना से ध्यान एवं योग की उन क्रियाओं तथा अभ्यासों की पूर्णता होती है, जिनके द्वारा साधक 'मूलाधार' चक्र से ऊपर उठता हुआ चार दूसरे चक्रों के माध्यम से 'आज्ञा' एवं आज्ञा से 'सहस्रार' की अवस्था को प्राप्त होता है । इस अभ्यास को 'श्रीविद्या' की उपासना कहते हैं । दुर्भाग्यवश उक्त पाँचों शुभ तन्त्रों का अमी तक पता नहीं चला है और इसी कारण यह साधना रहस्यावत बनी आज्ञासंक्रान्ति-संक्रान्ति व्रत । यह किसी भी पवित्र संक्रान्ति के दिन आरम्भ किया जा सकता है। इसका देवता सूर्य है। व्रत के अन्त में अरुण सारथि तथा सात अश्वों सहित सूर्य की सुवर्ण की मूर्ति का दान विहित है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.७३८ ( स्कन्द पुराण से उद्धृत )। आडम्बर-(१) धौंसा या नगाड़ा बजाने का एक प्रकार। एक आडम्बराघात का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (३०. १९) के पुरुषमेधयज्ञ की बलि के प्रसंग में हुआ है। (२) साररहित धर्म के बाह्याचार (दिखावट) को भी आडम्बर कहते हैं। आणव-जीवात्मा का एक प्रकार का बन्धन, जिसके द्वारा वह संसार में फंसता है । यह अज्ञानमूलक है। आगमिक शैव दर्शन में शिव को पशुपति तथा जीवात्मा को 'पशु' कहा गया है। उसका शरीर अचेतन है, वह स्वयं चेतन है । पशु स्वभावतः अनन्त, सर्वव्यापी चित् शक्ति का अंश है किन्तु वह पाश से बँधा हुआ है। यह पाश (बन्धन ) तीन प्रकार का है-आणव ( अज्ञान ), कर्म (क्रियाफल) तथा माया ( दृश्य जगत् का जाल )। दे० 'अणु'। आत्मा-आत्मन्' शब्द की व्युत्पत्ति से इस ( आत्मा ) की कल्पना पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा है___ "आत्मा 'अत्' धातु से व्युत्पन्न होता है जिसका अर्थ है 'सतत चलना,' अथवा यह 'आप्' धातु से निकला है, जिसका अर्थ 'व्याप्त होना है।' आचार्य शङ्कर 'आत्मा' शब्द की व्याख्या करते हए लिङ्ग पुराण (१.७०.९६) से निम्नाङ्कित श्लोक उद्धत करते हैं : यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते । [ जो व्याप्त करता है; ग्रहण करता है; सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है; और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है उसको आत्मा कहा जाता है। ] ____ 'आत्मा' शब्द का प्रयोग विश्वात्मा और व्यक्तिगत आत्मा दोनों अर्थों में होता है। उपनिषदों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से आत्मतत्त्व पर विचार हुआ है। ऐतरेयोपनिषद् में विश्वात्मा के अर्थ में आत्मा को विश्व का आधार और उसका मूल कारण माना गया है। इस स्थिति में अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म से उसका अभेद स्वीकार किया गया है। 'तत्त्वमसि' वाक्य का यही तात्पर्य है । 'अहं ब्रह्मास्मि' भी यही प्रकट करता है। 'आत्मा' शब्द का अधिक प्रयोग व्यक्तिगत आत्मा के लिए ही होता है। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसकी विभिन्न कल्पनाए हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार यह अणु है । न्याय के अनुसार यह कर्म का वाहक है। उपनिषदों में इसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहा गया है। अद्वैत वेदान्त में यह सच्चिदानन्द और ब्रह्म से अभिन्न है। आचार्य शङ्कर ने आत्मा के अस्तित्व के समर्थन में प्रबल प्रमाण उपस्थित किया है । उनका सबसे बड़ा प्रमाण है 'आत्मा की स्वयं सिद्धि' अर्थात् आत्मा अपना स्वतः प्रमाण है; उसको सिद्ध करने के लिए किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वह प्रत्यगात्मा है अर्थात् उसी से विश्व के समस्त पदार्थों का प्रत्यय होता है; प्रमाण भी उसी के ज्ञान के विषय हैं; अतः उसको जानने में बाहरी प्रमाण असमर्थ हैं। परन्तु यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो इसके लिए ऐसा कोई नहीं कहता कि 'मैं नहीं हूँ।' ऐसा कहने वाला अपने अस्तित्व का ही निराकरण कर बैठेगा। वास्तव में जो कहता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही आत्मा है ('योऽस्य निराकर्ता तदस्य तद्रूपम्' )। आत्मा वास्तव में ब्रह्म से अभिन्न और सच्चिदानन्द है। परन्तु माया अथवा अविद्या के कारण वह उपाधियों में लिप्त रहता है । ये उपाधियाँ हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy