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________________ स्वस्ति-ह तथा सौभाग्य की प्राप्ति के लिए देवी से प्रार्थना की देवा अनेन इति)। प्रार्थनासमर्पण के अर्थ में अनेक मन्त्रों जाय । उद्यापन के समय सींक से बने हुए पात्रों में १६ में यह 'परसर्ग' के समान प्रयुक्त होता है। प्रकार के खाद्य पदार्थ रखकर उन्हें वस्त्र खण्डों से (२) भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या आच्छादित करके सद्गृहस्थ सपत्नीक ब्राह्मणों को दान और अग्नि की भार्या है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, कर दिया जाय । स्वाहोपाख्यान नामक अध्याय, ४०-७-५६) में स्वाहा की स्वस्ति-कुशल-क्षेम, शुभकामना, कल्याण, आशीर्वाद, उत्पत्ति आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है : पुण्य, पापप्रक्षालन दानस्वीकार के रूप में भी इसका स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु । प्रयोग होता है : पिण्डदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा ।। ___ "ओभित्युक्त्वा प्रतिगृह्य स्वस्तीस्युक्त्वा सावित्री प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूपिणी । पठित्वा कामस्तुति पठेत् ।" (शुद्धितत्त्व) बभूव वाविका शक्तिरग्ने स्वाहा स्वकामिनी ।। वैदिक संहिताओं में स्वस्तिपाठ के कई सूक्त हैं। प्रत्येक ईषद् हास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकातरा । मङ्गलकार्य में उनका पाठ किया जाता है। इसे 'स्वस्ति उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने ! वरं श्रुणु ॥ वाचन' कहते हैं। विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा संभ्रमात् समुवाच ताम् । स्वस्तिक-एक प्रतीक या चिह्न, जो माङ्गलिक माना त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव पत्नी च सुन्दरि । जाता है । इसका आकार इस प्रकार है। इसका शाब्दिक दग्धु न शक्तस्त्वकृती हुताशश्च त्वया विना ।। अर्थ है, "जो स्वस्ति अथवा क्षेम का कथन करता है।" तन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्नरः । यह गणेशजी का लिप्यात्मक स्वरूप है। एक प्रकार की सुरेभ्यस्तत् प्राप्नुवन्ति सुराः स्वानन्दपूर्वकम् ॥ गृह रवना को भी स्वस्तिक कहते हैं । स्वस्तिकवत-आषाढ़ की एकादशी या पूर्णिमा से चार मासपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए । स्त्री ह-ऊष्मवर्णी का चौथा तथा व्यञ्जनों का तैतीसवाँ अक्षर । तथा पुरुष दोनों के लिए यह व्रत विहित है। यह कर्णाटक इसका उच्चारण स्थान कण्ठ है। कामधेनु तन्त्र में इसका में बहुत प्रचलित है। पञ्च वर्णों (नील पीतादि) की वर्णन और उपयोग बतलाया गया है : स्वस्तिका की आकृतियाँ बनाकर उन्हें विष्णु भगवान् को हकारं शृणु चाङ्गि चतुवर्गप्रदायकम् । अर्पित किया जाता है। देवालयों अथवा अन्य पवित्र कुण्डलीद्वयसंयुक्त रक्तविद्युल्लतोपमम् ।। स्थलों में विष्णु का पूजन होता है । रजःसत्त्वतमोयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा । स्वस्तिपुण्याहवाचन-माङ्गलिक कर्मों के प्रारम्भ में मन्त्रो पञ्चप्राणात्मक वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ॥ च्चारण के साथ पवित्र तण्डुल-विकिरण । इसकी विधि त्रिविन्दुसहितं वर्ण हृदि भावय पार्वति ।। में आशीर्वादात्मक वेदमन्त्रों का पाठ तथा प्रार्थनात्मक वर्णोद्धारतन्त्र में इसका लेखन प्राकार और तान्त्रिक कथनोपकथन होता है। उपयोग इस प्रकार बतलाया है : स्वाधिष्ठान-षट्चक्रों के अन्तर्गत द्वितीय चक्र। वस्ति- ऊर्ध्वादाकुञ्चिता मध्ये कुण्डलीत्वं गता त्वधः । प्रदेश के पीछे इसकी स्थिति है। इसमें शिव और अग्नि ऊर्ध्वं गता पुनः सैव तासु ब्रह्मादयः क्रमात् ।। वर्तमान रहते हैं : मात्रा च पार्वती ज्ञेया ध्यानमस्य प्रचक्ष्यते । षडरले वैद्युतनिभे स्वाधिष्ठानेऽनलत्विषि । करीष भृषिताङ्गी च साट्टहासां दिगम्बरीम् ॥ ब-भ-पैर्य-र- लैर्युक्त वर्णैः षड्भिश्च सुव्रत ।। अस्थिमाल्यामष्टभुजा वरदामम्बुजेक्षणाम्। स्वाधिष्ठानाख्यचक्रे तू सबिन्दु राकिणीं तथा । नागेन्द्रहारभूषाढयां जटामुकुटमण्डिताम् ॥ वादिलान्तं प्रविन्यस्य नाभौ तु मणिपूरके ॥ (तन्त्रसार) सर्वसिद्धिप्रदां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम् । स्वाहा-(१) देवताओं का हविर्दान-मन्त्र । (सुष्ठ आहवन्ते एवं ध्यात्वा हकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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