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________________ स्वमूरामदेव-स्वर्णगौरीव्रत निसर्गः सुदृढाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते । अजत्यस्तु स्वतः सिद्धः स्वरूपः भाव इष्यते ॥ [ जो किसी बाहरी हेतु ( कारण ) की अपेक्षा न रखता हो उसको स्वभाव कहा जाता है। इसके निसर्ग और स्वरूप दो भेद होते हैं। सुदृढ़ अभ्यास से उत्पन्न संस्कार को निसर्ग कहते हैं । जो किसी से उत्पन्न नहीं होता और जो स्वतः सिद्ध है उसको स्वरूप भाव कहते हैं । ] स्वभूरामदेव - निम्बार्क सम्प्रदायाचार्य एवं मध्यकालीन धर्मरक्षक वैष्णव महात्मा, जिन्होंने पंजाब की ओर हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को अपनी तपश्चर्या से ओजस्वो बनाया । अखिल भारत में धर्म प्रचार करने वाले आचार्य हरिव्यासदेव (पंद्रहवीं शताब्दी) के द्वादश शिष्यों में ये प्रथम एवं पट्टशिष्य थे । समयानुसार हरिव्यास - देवजी ने व्यापक धर्मप्रचार के उद्देश्य से मठ, मन्दिर द्वारा गद्दी की प्ररम्परा चलायी और अपने शिष्य-प्रशिष्यों को विभिन्न प्रदेशों में इसके लिए भेजा। उस समय गोरख पन्धी नाथ साधु साधनमार्ग से हटकर धार्मिक द्वेष के वश में पड़ गए थे। पंजाब की ओर वैष्णवों से इनका संघर्ष होता रहता था । हरिव्यासदेव ने हिन्दूधर्म के उक्त गृहकलह के शमनार्थ अपने प्रधान विष्य स्वभू रामदेव को मथुरास्थिर नारवटीला स्थान का अध्यक्ष बनाकर पंजाब की ओर भेज दिया । इन्होंने अपने भजन-साधन के बल पर नाथों का हृदय परिवर्तन कर उस दिशा में वैष्णव धर्म का प्रभाव स्थापित किया । जगाधरी जिले के बूड़िया स्थान में यमुनातट पर 'स्वभूरामदेवजी की बनी' नामक तपोभूमि आज भी जनता में सम्मानित है। वे उस समय के प्रभावशाली महात्मा थे और धर्मरक्षा की ओर विशेष दत्तचित्त रहते थे । इसीलिए वैष्णवों के मठ-मन्दिरों में भारत के सुदूर बंगाल, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, व्रजमण्डल आदि स्थानों में स्वभूरामदेव - शाखा के महत्त्वपूर्ण स्थान अधिक संख्या में पाये जाते हैं । इनकी परंपरा में अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थकार, उपासनारहस्यज्ञ विद्वान् और तपस्वी सन्त होते आये हैं । स्वर्ग -जिस स्थान अथवा लोक का गान अथवा प्रशंसा की जाय वह स्वर्ग है ( स्वयते स्वयंते गीयते च इति ) देवताओं के निवास स्थान को स्वर्ग कहते हैं। यह अत्यन्त प्राचीन विश्वास है कि पुण्यात्मा मरने के पश्चात् स्वर्ग लोग में जाता है । मीमांसा शास्त्र के अनुसार स्वर्ग Jain Education International ६९५ वह लोक है जहाँ दुःख का पूर्ण अभाव है और पूर्ण सूख प्राप्ति होती है । यज्ञानुष्ठान से पुण्य होता है | अतः स्वर्ग की कामना रखने वाले को यज्ञ करना चाहिए नैयायियों के मत में स्वर्ग की परिभाषा है। यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं यत् तत् सुखं स्वःपदास्पदम् ॥ पद्मपुराण (भूखण्ड अध्याय ९०) में स्वयं के गुणदोष इस प्रकार कहे गये हैं : 1 नन्दनादीनि दिव्यानि रम्याणि विविधानि च। तत्रोद्यानानि पुण्यानि सर्वकामशुभानि च ।। सर्व कामफलैः शोभितानि समन्ततः । विमानानि सुदिव्यानि परिताम्यप्सरोगणैः ॥ सर्वत्रैव विचित्राणि कामगानि रसानि च । तरुणादित्यवर्णानि मुक्ताजालान्तराणि च ॥ चन्द्रमण्डलशुभ्राणि हेमशय्यासनानि च । सर्वकामसमृद्धाश्च सुखदुःखविवजिताः ॥ नराः सुकृतिनस्ते तु विचरन्ति यथासुखम् । न तत्र नास्तिकाः यान्ति न स्तेया नोजितेन्द्रियाः ॥ न नृशंसा न पिशुनाः कृतघ्ना न च मानिनः । सत्यास्तपस्थिताः शूरा दयावन्तः क्षमापराः ॥ यज्वानो दानशीलाश्च तत्र गच्छन्ति ते नराः । न रोगो न जरा मृत्युनं शोको न हिमादयः ॥ न तत्र क्षुत्पिपासा न कस्य ग्लानिर्न दृश्यने । एते चान्ये च बहवो गुणाः सन्ति च भूपते ॥ दोषास्तत्रैव ये सन्ति तान् शृणुस्य च साम्प्रतम् । शुभस्य कर्मणः कृत्स्नं फलं तचैव भुज्यते ॥ न चात्र क्रियते भूयः सोऽत्र दोषो महान् श्रुतः । असन्तोषश्च भवति दृष्ट्रा दीप्तां परश्रियम् ॥ सम्प्राप्ते कर्मणामन्ते सहसा सहसा पतनं तथा । इह यत् क्रियते कर्म फलं तत्रैव भुञ्जते ॥ कर्मभूमिरियं राजन् फलभूमिस्त्वसी स्मृता ॥ अग्निपुराण, मत्स्यपुराण (१०३.१०४), नृसिंह पुराण ( अध्याय २०), गरुडपुराण (१०९.४४ ) में भी स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है । स्वर्णगौरीवत - भाद्रशुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह तिथिव्रत है। गौरी देवता है। केवल महिलाओं के लिए यह व्रत है । इस अवसर पर गौरी का षोडशोपचार पूजन किया जाय। सन्तानार्थ स्वास्थ्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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