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________________ अवन्तिका-अविकृतपरिणामवाद [ गुरुपुत्र के पैर नहीं धोने चाहिए।] (२) पिण्डदान के लिए बिछे हुए कुशों पर जल सींचना । ब्रह्मपुराण में लिखा है : सपुष्प जलमादाय तेषां पृष्ठे पृथक् पृथक् । अप्रदक्षिणं नेनिज्याद् गोत्रनामानुमन्त्रितम् ।। [ फल-सहित जल लेकर पिण्डों के पृष्ठ भाग पर अलग-अलग बायीं ओर जल सींचना चाहिए।] अवन्तिका-मालव देश की प्राचीन राजधानी । उज्जयिनी (उज्जैन) का वास्तव में यही मूल नाम था। यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी। तब से इसका नाम उज्जयिनी ( विजय वाली ) पड़ा। इसकी गणना भारत को सप्त पवित्र मोक्षदायिनी पुरियों में है : अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ (स्कन्दपुराण) [(१) अयोध्या, (२) मथुरा, (३) माया, (४) काशी, (५) काञ्ची, (६) अवन्तिका और(७) द्वारावती ये सातों पुरी मोक्षदायिका हैं।] इसके पर्याय विशाला और पुष्पकरण्डिनी भी हैं। 'संस्कारतत्त्व' में कहा गया है : उत्पन्नोर्कः कलिङ्ग तु यमुनायाञ्च चन्द्रमाः । अवन्त्यां च कुजो जातो मागधे च हिमांशुजः ।। [ कलिङ्ग में सूर्य की, यमुना में चन्द्रमा की, अवन्ती में मङ्गल की और मगध में बुध की उत्पत्ति हुई।] अवभृथ-दीक्षान्तस्नान; प्रधान यज्ञ समाप्त होने पर सामूहिक नदीस्नान; यज्ञादि के न्यूनाधिक दोष की शांति के निमित्त शेष कर्त्तव्य होम । स्नान इसका एक मुख्य समझा जाता है। अवरोधन-रोक, बाधा, किसी क्रिया की रुकावट । पाण्डवगीता में कथन है : कृष्ण त्वदीयपदपंकजपिञ्जरान्ते अद्य व मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥ [हे कृष्ण ! तुम्हारे चरणरूपी कमल के पिंजड़े के भीतर मेरा मनरूपी राजहंश आज ही प्रविष्ट हो जाय । क्योंकि प्राण-प्रयाण के समय कफ, वात और पित्त से कण्ठ के अवरुद्ध हो जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे हो सकता है ?] राजाओं के अन्तःपुर को अवरोध कहते हैं, जहाँ उनकी रानियाँ निवास करती हैं। अवलिप्त-धन आदि से गर्वित मनुष्य । मनु (४।७९) के अनुसार इसका साथ वर्जित है : न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालन पुक्कसैः । न मूर्ख वलिप्तश्च नान्त्यैः नान्त्यावसायिभिः ।। [पतित, चाण्डाल, पुक्कस, मूर्ख, धन से गर्वित, अन्त्यज और अन्त्यजों के पड़ोसियों के साथ नहीं रहना चाहिए।] अविकृत परिणामवाद-वैष्णव भक्तों का एक दार्शनिक सिद्धान्त । ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध-निरूपण में इसका विकास हुआ। ब्रह्म की निर्विकारता तथा निरपेक्षता और जीव-जगत् की सत्यता सिद्ध करने के लिए इस मत का प्रतिपादन किया गया। यद्यपि ब्रह्म-जीवजगत् का वास्तविक अद्वैत है परन्तु ब्रह्म में बिना विकार उत्पन्न हुए उसी से जीव और जगत् का प्रादुर्भाव होता है । अतः यह प्रक्रिया अविकृत परिणाम है । इसी मत को अविकृत परिणामवाद कहते हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति में जब परिणाम (परिवर्तन ) होता है तब जगत् की उत्पत्ति होती है । इस मत को प्रकृतिपरिणामवाद कहते हैं। वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्म का परिणाम ही जगत् है। इसे ब्रह्मपरिणामवाद कहते हैं। किन्तु वेदान्तियों के कई विभिन्न सांप्रदायिक मत हैं। शङ्कराचार्य ब्रह्म की निर्विकारता की रक्षा के लिए जगत् को ब्रह्म का परिणाम न मानकर उसको ब्रह्म का विवर्त मानते हैं। किन्तु इससे जगत् मिथ्या मान ततश्चकारावभथं विधिदृष्टेन कर्मणा । (महाभारत) [ शास्त्रोक्त विधान के अनुसार उसने अवभूथ स्नान किया।] भुवं कोष्णेन कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि । (रघुवंश) [ कुण्ड भर दूध देने वाली गौ ने अवभृथ से भी पवित्र अपने दूध से भूमि को सिंचित किया।] अवमदिन सप्ताह का ऐसा दिन, जिसमें दो तिथियों का अन्त हो। इस दिन की दूसरी तिथि की गणना नहीं की जाती और उसका क्षय होना कहा जाता है। प्रथम बार व्रत आचरण करने में इसको त्यक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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