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________________ जाता है। इससे वृक्षों के सुख-दुःखानुभव स्पष्ट हैं। वृक्षों का श्वासोच्छ्वास वैज्ञानिक जगत् में प्रत्यक्ष मान्य ही है। वे दिन-रात को आक्सिजन तथा कार्बन गैस का क्रम से त्याग-ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार अफ्रीका आदि के पशुपक्षी कीट-भक्षी लताएं कुत्र प्रख्यात ही हैं। अतः वे सभी क्रियाए भगवान् की एक कला मात्र की प्राप्ति से वनस्पति योनि में देखी जाती हैं । इसके अनन्तर स्वेदज योनि में दो कलाओं का विकास माना जाता है, जिससे इस योनि में अन्नमय और प्राणमय कोषों का विकास देखने में आता है। इस प्रकार प्राणमय कोष के ही कारण स्वेदज गमनागमन व्यापार में सफल होते हैं । अण्डज योनि में तीन कलाओं के कारण अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोषों का विकास होता है । इस योनि में मनोमय कोष के विकास के परिणामस्वरूप इनमें प्रेम आदि अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । इसी प्रकार जरायुज योनि के अन्तर्गत चार कलाओं के विद्यमान रहने के कारण इनमें अन्नमय, प्राणमय मनोमय कोणों के साथ ही साथ विज्ञानमय कोष का भी विकास होता है। उत्कृष्ट पशुओं में तो बुद्धि का भी विकास देखने में आता है, जिससे वे अनेक कर्म मनुष्यवत् करते हैं । यथा अश्व, श्वान, गज आदि पशु स्वामिभक्त होते हैं, एवं समय आने पर उनके प्राणरक्षक के रूप में भी देखे जाते हैं। जरायुज योनि के ही द्वितीय प्रभेद मनुष्ययोनि में चार से अधिक एक आनन्दमय कोष का भी विकास है । पञ्चकोषों के विकास के कारण ही मनुष्य में कर्म की स्वतन्त्रता होती है । मनुष्य यदि चाहे तो पुरुषार्थ द्वारा पाँचों कोषों का विकास कर पूर्ण ज्ञानसम्पन्न मानव भी हो सकता है। इसी प्रकार कर्मोन्नति द्वारा मनुष्य जितनाजितना उन्नत होता जाता है, उसमें ईश्वरीय कलाओं का विकास भी उतना हो होता जाता है । इस कला विकास में ऐश्वर्यमय शक्ति का सम्बन्ध अधिक है, अज्ञेय ब्रह्मशक्ति का नहीं। विष्णु भगवान् के साथ ही भगवदवतार का प्रधान सम्बन्ध रहता है। क्योंकि विष्णु ही इस सृष्टि के रक्षक एवं पालक हैं। वद्यपि सृष्टि स्थिति एवं संहार के असाधारण कार्यों की निष्पन्नता के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों के अवतार हुआ करते हैं, पर जहाँ तक रक्षा का प्रश्न है, इसके लिए विष्णु के ही अवतार Jain Education International माने जाते हैं । अवतार- तिविव्रत अवतारों की वे सब जन्मतिथियां जो जयन्तियों के नाम से विख्यात है व्रत के लिए विहित है। , अवतारतिथिव्रत- अवनेजन - कृत्यसारसमुच्चय ( पृ० १३) के अनुसार ये तिथियां निम्नलिखित हैं मत्स्य चैत्र शुक्ल ३ कूर्म वैशाख पूर्णिमा वराह भाद्र शुक्ल ३; नरसिंह वैशाख शुक्ल १४; वामन भाद्र शुक्ल १२; परशुराम वैशाख शुक्ल ३; राम चैत्र शुक्ल ९; बलराम भाद्र शुक्ल ६; कृष्ण भाद्र कृष्ण ८; बुद्ध ज्येष्ठ शुक्ल २ या वैशाखी पूर्णिमा । कुछ ग्रन्थों के अनुसार कल्कि अवतार अभी होना शेष है जबकि कुछ ने श्रावण शुक्ल ६ को कल्कि जयन्ती का उल्लेख किया है। कुछ ग्रन्थों में इन जयन्तियों अथवा जन्मतिथियों में अन्तर है । अवधूत - सम्यक् प्रकार से धूत (परिष्कृत) निर्मुक्त इस शब्द का प्रयोग शैव एवं वैष्णव दोनों प्रकार के साधुओं के अर्थ में होता है । शैव अवधूत वे संन्यासी हैं जो तपस्या का कठोर जीवन बिताते हैं, जो कम से कम कपड़े पहनते हैं और कपड़े की पूर्ति भस्म से करते हैं तथा अपने केश जटा के रूप में बढ़ाते हैं। वे मौन रहते हैं, हर प्रकार से उनका जीवन बड़ा क्लेशसाध्य होता है । योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इस श्रेणी के विचित्र अवधूत के नाम से पुकारा जाता है । नाम दिया, वैष्णव सम्प्रदाय में भी अवधूत का महत्त्व है । जब स्वामी रामानन्द ने सामान्य जनों को वैष्णवों में दीक्षित करने के लिए अपने धार्मिक सम्प्रदाय से जातिभेद हटा दिया तब उन्होंने अपने शिष्यों को 'अवधूत' जिसका अर्थ था कि उन्होंने अपने पुराने रूप (पूर्ववर्ती स्वेच्छाचार) को त्याग दिया है, उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार कर अपनी व्यक्तिगत आदतों को त्याग दिया है, और इस प्रकार समाज एवं प्रकृति के बन्धनों को तोड़ दिया है। ऐसे रामानन्दी साथ दसनामी संन्यासियों से अधिक कड़ा अनुशासनमय धार्मिक जीवन यापन करते हैं। अवध्य बघ के अयोग्य : For Private & Personal Use Only 'अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुस्तिर्यग्योनिगता अपि ।' (स्मृति) [ निम्न योनि की स्त्रियों भी अवध्य कही गयी है । ] ब्राह्मण भी अवध्य (वधदण्ड के अयोग्य ) माना गया है । अवनेजन - ( १ ) चरण प्रक्षालन करना, पग धोना : ' न कुर्याद् गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् |' ( मनु ) www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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