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________________ शिक्षावल्ली-शिव ध्वनि का आरोह-अवरोह, उच्चारण की शुद्धता, उच्चारण की कालावधि का परिसीमन शिक्षाशास्त्र के मुख्य विषय है । इसके वर्ण्य विषयों में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान इन छ: की गणना होती है। 'अ' से लेकर 'ह' तक जितने वर्ण हैं उनके उच्चारण के विविध स्थान निश्चित हैं । वे हैं-कण्ठ, तालु, मूर्ना, दन्त और ओष्ठ । स्वरों के तीन भेद है-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । मात्राएँ तीन हैं-ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत । बल प्रयत्न को कहते हैं । प्रयत्न दो प्रकार के हैं-अल्पप्राण और महाप्राण । श्रुतिमधुर पाठ को साम कहा जाता है। सन्धि को सन्तान कहते हैं । शिक्षा के इन छः वर्ण्य विषयों के ज्ञान से ही भाषा का शुद्ध उच्चारण और अर्थ बोध संभव है। शिक्षावल्ली-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन विभागों में प्रथम विभाग। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ विवेचन के पश्चात् अद्वैत सिद्धान्तसमर्थक श्रुतियों का विन्यास है। इसी में स्नातक को दिया जाने वाला आचार्य का दीक्षान्त प्रवचन भी है, जो संप्रति अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के पदवीदानसमारोह में स्नातकों के समक्ष पढ़ा जाता है। शिखरिणीमाला-अप्पय दीक्षित द्वारा लिखा गया एक ग्रन्थ। इसमें चौसठ शिखरिणी छन्दों में भगवान् शङ्कर के सगुण स्वरूप की स्तुति की गयी है। शिखा-सिर के मध्य में स्थित केशपुञ्ज । यह हिन्दुओं का विशेष धार्मिक चिह्न है । चूडाकरण संस्कार के समय सिर के मध्य में बालों का एक गुच्छा छोड़ा जाता है। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के समय ( देवकर्म के समय ) शिखा बन्धन किया जाता है। कर्म करने के तीन आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ) में ही शिखा रखी जाती है, चौथे (संन्यास) में शिखा त्याग दी जाती है । शिरोवत-मुण्डकोपनिषद् (३.२.२०) तथा विष्णु ध० सू० ( २६.१२ ) में इस व्रत का उल्लेख मिलता है। शङ्कराचार्य इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस व्रत में सिर पर अग्नि (तेज) धारण करना होता है, जो ज्ञानसंचय का प्रतीक है। शिव-एक ही परम तत्त्व की तीन मूर्तियों ( ब्रह्मा, विष्णु और शिव) में अन्तिम मूर्ति । ब्रह्मा का कार्य सृष्टि, विष्णु का स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है। परन्तु साम्प्रदायिक शैवों के अनुसार शिव परम तत्त्व हैं और उनके कार्यों में संहार के अतिरिक्त सृष्टि और स्थिति के कार्य भी सम्मिलित हैं। शिव परम कारुणिक भी हैं और उनमें अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा. तिरोभाव (गोपन अथवा लोपन ) की क्रिया भी पायी जाती है । इस प्रकार उनके कार्य पाँच प्रकार के हैं। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ इन्हीं कार्यों में से किसी न किसी से सम्बद्ध हैं। इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है । शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गये हैं । संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान, भैषज्य आदि के मूल प्रवर्तक शिव हैं। इनकी कल्पना सब जीवधारियों के स्वामी के रूप में भी की गयी है, इसलिए ये पशुपति, भूतपति और भूतनाथ कहलाते हैं । ये सभी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाते हैं, अतः महेश्वर और महादेव इनके विरुद पाये जाते हैं। इनमें माया की अनन्त शक्ति है, अतः ये मायापति भी हैं। उमा के पति होने से इनका एक पर्याय उमापति है। इनके अनेक विद और पर्याय हैं। महाभारत ( १३,१७) में इनकी एक लम्बी सहस्रनाम सूची दी हुई है। शिव की कल्पना की उत्पत्ति और विकास का क्रम वैदिक साहित्य से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है । ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में ही शिव की अनेक विशेषताओं और तत्सम्बन्धी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है। इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता ( अ० १६ ) में जो शतरुद्रिय पाठ है उसमें शिव का मूल रूप प्रतिबिम्बित है। उसमें शिव को गिरीश (पर्वत पर रहने वाला), पशुचर्म धारण करने वाला ( कृत्तिवास ) तथा जटाजूट रखने वाला ( कपर्दी) कहा गया है। अथर्ववेद में रुद्र की बड़ी महिमा बतायी गयी है और उनके लिए भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव और ईशान विरुदों का प्रयोग किया गया है। सिन्धुघाटी के उत्खनन से जो धार्मिक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं उनमें योगी शिव की भी एक प्रतिकृति है। परन्तु अभी तक संज्ञा के रूप में शिव का नाम न मिलकर विशेषण के रूप में ही मिला है। उत्तर वैदिक साहित्य में शिव रुद्र के पर्याय के रूप में मिलने लगता है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र के अनेक नामों में शिव भी एक है । शाङ्खायन, कौषीतकि आदि ब्राह्मणों में शिव, रुद्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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