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________________ वेद ५९९ कारण वेद का दर्शन करते हैं । अतएव ब्रह्मा के द्वारा वेद की प्राप्ति या ऋषियों के समाधिस्थ अन्तःकरण में वेद की उपस्थिति एक ही स्तर की बात है। साथ ही यह भी है कि अपौरुषेय वेद परमात्मा के जिस भाव से प्रकट होता है उसे ऋषि लोग भी समाधिस्थ होकर प्राप्त करते है। वस्तुतः जीव और ब्रह्म एक ही हैं। अविद्या के कारण केवल जीव देश, काल और वस्तु के द्वारा परमात्मा से अलग है और परमात्मा इन सब मायाराज्यों से परं है। पर समाधि की दशा में व्यष्टि अन्तःकरण समष्टि अन्तःकरण में विलीन हो जाता है और ब्रह्म तथा जीव में एकत्व की स्थिति आ जाती है। इसी दशा में वेद का ज्ञान होता है। निष्कर्ष यह है कि परमात्मा के निश्वास रूप प्रकाशित वेद, ब्रह्मा के हृदय तथा देवर्षियों या ब्रह्मर्षियों के अन्तःकरण में भी एक ही भूमि से प्राप्त होते हैं । इसलिए उन्हें अपौरुषेय कहा जाता है। प्रकृतिविलास और प्रकृतिलय के अनुसार परमात्मा के तीन भाव अध्यात्म, अधिदैव और अधिभत हैं। अध्यात्मभाव में मायातीत और मन-वाणी से अगोचर, निर्गुण, निष्क्रिय परब्रह्म आता है। अधिदैव भाव में माया का अधिष्ठाता, सृष्टि का कर्ता, उसकी स्थिति तथा प्रलय का संचालक ईश्वर है । अधिभूत भाव में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड स्वरूप विराट का रूप आता है। इन तीन भावों के अनुसार संसार भी त्रिगुणात्मक है। वस्तुतः कार्य- कारण का विस्तार मात्र होता है, अतएव दोनों में समान भावों की स्थिति होना स्वाभाविक है । कार्यब्रह्म में प्रकृति और पुरुष की लीला का पर्यवसान गुण और भावों की लीला के रूप में होता है । अतएव प्रकृति-पुरुष को आधार मानने वाले मुक्तिकामी साधक को प्रत्येक वस्तु में त्रिगुण और त्रिभाव देखना पड़ता है। इसी प्रकार ज्ञानराशि भी वही पूर्ण है जिसमें अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव तीनों भावों की पूर्णता हो। वेदों में भी आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों अर्थों का सन्निवेश है। स्मृतियों के अनुसार अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत-तीनों भावों से सम्पन्न अमृतमयी श्रुति ज्ञानी महात्मा के लिए ब्रह्मानन्द का आस्वादन कराती है। अतः वेद तीन अर्थों और तीन भावों से सम्पन्न है। आज के मनुष्यों की दृष्टि एकांगी है और इस दृष्टि की अपूर्णता के कारण भ्रमवश वे वेदमंत्रों का पूर्ण अर्थ नहीं लगा पाते। वे प्रायः इनके अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत में से किसी एक का ही अर्थ लगा लेते हैं। पर वेद की अपौरुषेयता के कारण यह सब अनर्गल है। वेद में तीनों भावों का एक साथ अर्थ लगाना चाहिए। बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार देवता और असुर दोनों ही प्रजापति के द्वारा उत्पन्न किये गये भाई हैं । असुर देवों के बड़े भाई और दोनों ही एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं। देवासुरसंग्राम इसी का परिणाम है । इस बात को ब्रह्म के तीनों भावों की भमिका पर रखकर देखना होगा । दैवी सम्पति वालों और आसुरी सम्पत्ति वालों का पारस्परिक संघर्ष इसका अधिभूत अर्थ कहा जायगा, और इसी तरह देवलोक में तमोगुणी असुरों तथा सत्त्वगुणी देवों का पारस्परिक संघर्ष अधिदैव अर्थभूत देवासुरसंग्राम है। तीसरे अध्यात्म के क्षेत्र में मानसिक कुमति और सुमति का द्वन्द्व आध्यात्मिक देवासुरसंग्राम है। इस प्रकार वेदमन्त्रों का तीनों भावों की दृष्टि से अर्थ लगाया जा सकता है। इस तरह वेद में त्रिगुण और त्रिभाव की पूर्णता है । इसलिए वेद को अपौरुषेय कहा जाता है। वेद को समझने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष नामक छः शास्त्रों के अंगों का अध्ययन आवश्यक है। इसके उपरान्त वैदिक सप्त दर्शनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इनमें से एक के भी अभाव में साधक का ज्ञान अपूर्ण रहेगा । उपर्युक्त षडंग तथा सप्तदर्शन की तात्त्विक ज्ञानभूमि पर प्रतिष्ठित होकर ही मनुष्य वेदाध्ययन का अधिकारी बन सकता है। ज्ञानार्जन का अधिकारी होने पर उसे कर्म, उपासना और ज्ञान की सहायता से अपना चित्त निर्मल करना होगा, तभी नेद समझा जा सकता है । वेदों मे ऋषि, छन्द और देवता का उल्लेख आता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस ऋषि के द्वारा जो मन्त्र प्रकाशित हुआ वह उस मन्त्र का ऋषि कहा जाता है और जिन छन्दों में वे मन्त्र कहे गये हैं वे उन मन्त्रों के छन्द कहे जाते हैं । जिस मन्त्र से भगवान् के जिस रूप की उपासना की जाती है वह उस मन्त्र का देवता कहा जाता है। प्रत्येक वैदिक मन्त्र की शक्ति अलग-अलग होती है, इसलिए उसके छन्द का परिज्ञान होने से उस मन्त्र की आधिभौतिक शक्ति का पता चलता है । देवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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