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________________ वाजसनेयीसंहिता-वादरिमत वाजसनेयी संहिता-यजुर्वेद के वर्णन में इस संहिता वातवन्त-पञ्चविंश ब्राह्मण में उद्धृत एक ऋषि का नाम । का वर्णन किया जा चुका है । दे० 'यजुर्वेद' । उन्होंने तथा दृति ने एक सत्र किया था, किन्तु किसी वाजसनेय प्रातिशाख्य-इसके रचयिता कात्यायन हैं । कुछ विशेष समय पर उसे बन्द कर देने के कारण उन्हें दुःख विद्वानों का मत है कि पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार उठाना पड़ा तथा उनके वंशज वातवन्त दार्तयों की अपेक्षा कात्यायन तथा उपर्युक्त कात्यायन एक हो व्यक्ति हैं। कम उन्नतिशील हुए। अपने वार्तिक में जिस तरह उन्होंने पाणिनि की तीव्र वातुल आगम-रौद्रिक आगमों में से एक। इसका अन्य आलोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्य में भी की है। नाम परआगम है। इसमें लिङ्गायत सम्प्रदाय सम्बन्धी इससे प्रमाणित होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि अधिक उल्लेख प्राप्त है। के सूत्रों के बाद का है। इसमें आठ अध्याय हैं। पहले वात्सीपुत्र-वत्स गोत्र की महिला के पुत्र । बृहदारण्यक अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वर प्रक्रिया उपनिषद् की अंतिम वंशसूची में इनका उल्लेख हुआ है। है। तीसरे से पाँचवें अध्याय तक संस्कार हैं। छठे और ये पाराशरीपत्र के शिष्य थे। काण्व तथा माध्यन्दिन सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं । आठवें शाखा के अनुसार ये भारद्वाजीपुत्र के शिष्य थे। अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम हैं । इस वात्स्यायन-(१) वत्स गोत्र में उत्पन्न और तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में शाकटायन, शाकार्य, गाय, काश्यप, दाल्भ्य, आरण्यक में उद्धृत एक आचार्य का नाम । जातुकर्ण, शौनक, उपाशिवि, काण्व, माध्यन्दिन आदि (२) गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन मुनि ने भाष्य पूर्वाचार्यों की चर्चायें हैं। लिखा है। हेमचन्द्र ने न्यायसूत्र पर भाष्य रचने वाले वाणिज्यलाभवत-इस व्रत में मूल तथा पूर्वाषाढ़ नक्षत्रों वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है, के दिन उपवास करने का विधान है। व्रती को पूर्वाभि- किन्तु यह बात अप्रमाणित है। विद्वानों ने इनकी स्थिति मुख बैठकर चार कलशों के जल से, जिनमें शंख, मोती, पाँचवीं शती में ठहरायी है। नरकुल की जड़ें तथा सुवर्ण पड़ा हो, स्नान करना चाहिए। वाद-किसी दार्शनिक मत के प्रतिपादन को वाद कहा तदनन्तर वह विष्णु, वरुण तथा चन्द्रमा की अपने आँगन जाता है । वाद के प्रतिपादन के लिए पूर्व पक्ष का खण्डन में पूजा करे । उपर्युक्त देवों के सम्मान में घृत से होम तथा उत्तर पक्ष का समर्थन आवश्यक है। करना चाहिए। अन्त में नीले वस्त्रों का, चन्दन का, वादनक्षत्रमाला-अप्पय दीक्षित कृत एक मीमांसा विषयक मदिरा का तथा श्वेत पुष्पों का दान किया जाय । इस ग्रन्थ । इसमें पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा के सत्ताईस आचरण से व्यापारिक सफलता प्राप्त होती है, समुद्र विषयों का विचार किया गया है। यात्राओं में तथा कृषि के कार्यों में व्रतकर्ता कभी असफल । वादरिमत-आचार्य वादरि के मत का उल्लेख ब्रह्मसूत्र नहीं होता। और मीमांसासूत्र दोनों में पाया जाता है । अनुमान होता वाणी-दादपंथ के प्रवर्तक महात्मा दादु दयाल द्वारा है कि ये ब्रह्मसूत्रकार और मीमांसासूत्रकार से प्राचीन थे रचित 'सबद' और 'वाणी' अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें और इनके मत का देश में काफी प्रभाव था। बादरायण इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर(राम) भक्ति के ने अपने मत के समर्थन में और मीमांसासूत्रकार जैमिनि उपदेश सबल छन्दों द्वारा दिये हैं। कविता की दृष्टि से ने पूर्वपक्ष के रूप में खण्डन के लिए इनके मत को उद्धृत भी इनकी रचना मनोहर एवं यथार्थभाषिणी है। किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये मीमांसक आचार्य वासरशन-वायु की रशना - मेखला पहनने वाले, सर्वस्व- थे । यत्र-तत्र इनके मतों का जो उल्लेख पाया जाता है उनसे त्यागी नग्न मुनिजन । ऋग्वेद तथा तैत्तिरीय आरण्यक में निम्नलिखित बातें ज्ञात होती हैं : ऋषि-मुनियों के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। नग्न (१) आचार्य वादरि के मतानुसार यद्यपि परमेश्वर रहने वाले दिगम्बर मुनियों की परम्परा इसी मूल से महान है, फिर भी प्रादेश मात्र हृदय द्वारा अर्थात् मन विकसित प्रतीत होती है। द्वारा उसका स्मरण हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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