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________________ ५६० रुद्रमाहात्म्य-रूपगोस्वामी रुद्रमाहात्म्य-चारों वेदों में रुद्र की स्तुतियाँ हैं । वाजसनेयी संहिता के शतरुद्रिय में शिव, गिरीश, पशुपति, नीलग्रीव, शितिकण्ठ, भव, शर्व, महादेव इत्यादि नाम वर्तमान हैं। अथर्वसंहिता में महादेव, पशुपति आदि नाम आये हैं । मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण में जिस प्रकार रुद्रदेव की उत्पत्ति वर्णित है उसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण और शाङ्खायन ब्राह्मण में भी वर्णित है। रुद्रयामल तन्त्र-यामल तन्त्रों को व्याख्या हो चुकी है। यामलों में 'रुद्रयामल' भी एक है। रुद्रव्रत-(१) ज्ये' ठ मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इन चारों दिन व्रत रखने वाले को पञ्चाग्नि तप करना चाहिए। चौथे दिन सायं काल के सयय सुवर्ण की गौ दान में देनी चाहिए । इस व्रत के रुद्र देवता हैं। (२) वर्ष भर एकभक्त पद्धति से आहार करके अन्त में सुवर्ण के वृषभ तथा तिलधेनु का दान करना चाहिए। । यह संवत्सरवत है। शङ्कर भगवान् इसके देवता हैं। इसके आचरण से पाप तथा शोक दूर होते हैं तथा व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है। (३) कार्तिक शुक्ल तृतीया से इस व्रत का आरम्भ होता है । एक वर्ष तक इसमें नक्त विधि से गोमूत्र तथा यावक का आहार करना चाहिए। यह संवत्सरव्रत है। गौरी तथा रुद्र इसके देवता हैं। वर्षान्त में गौ का दान करना चाहिए। इस व्रत से व्रती एक कल्प तक गौरीलोक में निवास करता है। रुद्रसम्प्रदाय और सनकसम्प्रदाय । इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन वेदान्त है। रुद्रदेव ने बालखिल्य ऋषियों को जो उपदेश किया था, वही उपदेश शिष्यपरम्परा से चलता हुआ विष्णुस्वामी को प्राप्त हुआ। अतएव इधर सर्वप्रथम वेदान्तभाष्यकार विष्णुस्वामी ने ही शुद्धाद्वैतवाद का प्रचलन किया। कहते हैं कि उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलोचन थे। इन्हीं की परम्परा में वल्लभाचार्य का आविर्भाव हआ। कहते हैं कि दक्षिण भारत में विष्णुस्वामी पाण्डयविजय राज्य के राजगुरु देवेश्वर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। इनके पूर्वाश्रम का नाम देवतनु था। इन्होंने वेदान्तसूत्रों पर 'सर्वज्ञसूक्त' नामक भाष्य लिखा था। कहते हैं कि इनके बाद दो विष्णुस्वामी और हुए, इसी से इन्हें 'आदि विष्णुस्वामी' कहते हैं। रुद्रसंहिता-शिवमहापुराण के सात खण्ड हैं। इसका ता. दूसरा खण्ड रुद्रसंहिता है। रुद्रसंहिता में सष्टिखण्ड, सतीखण्ड, पार्वतीखण्ड, कुमारखण्ड, युद्धखण्ड नामक पाँच खण्ड हैं। द्राक्ष-लिङ्गायतों में बच्चे के जन्म के साथ ही उसका अष्टवर्ग संस्कार होता है। इसमें 'रुद्राक्ष धारण' भी है। ये संस्कार आठों पापों से रक्षा पाने के लिए कवच का कार्य करते हैं । रुद्राक्ष का पवित्र वृक्ष हिमालय के नेपाल प्रदेश में होता है। उसके फल की गुठली ही रुद्राक्ष है, जिसमें अगल-बगल कुछ रेखा या खाँचे बने रहते हैं । उन्हें मुख कहा जाता है। साधारणतः पंचमुखी रुद्राक्ष पहनने या माला बनाने में प्रयुक्त होते हैं। एकादश मुखी रुद्राक्ष शंकरस्वरूप होते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष ऋद्धिसिद्धिदाता शिवस्वरूप होता है, अत्यन्त भाग्यशाली व्यक्ति को ही यह सुलभ है। नेपाल के पशुपतिनाथमन्दिर में एकमुखी रुद्राक्ष और दक्षिणावर्त शंख के दर्शन कराये रुद्रलक्षव्रत-इस व्रत के अनुसार एक लाख दीपकों के, जिनमें गौ के घी में डुबायी हई रुई की उतनी ही बत्तियाँ पड़ी हों, शिवप्रतिमा के सम्मुख समर्पण करने का विधान है । दीपकों के समर्पण से पूर्व ही शिव का षोडशोपचार पूजन कर लेना चाहिए। व्रत का आरम्भ कार्तिक, माघ, वैशाख या श्रावण मासों में से किसी में भी करना चाहिए तथा उसी मास में उसकी समाप्ति भी होनी चाहिए । इस व्रत से व्रती सम्पत्ति, पुत्रादि के अतिरिक्त उन समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है जिनकी वह कामना करता है। रुद्रसम्प्रदाय-शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णव धर्म के चार प्रधान सम्प्रदाय समुन्नत हुए-श्रीसम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय, जाते हैं। सरु-यजुर्वेद में यह अश्वमेध के बलिपशु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो एक प्रकार का हरिण है । ऋग्वेद में रुरुशीर्षा बाणों का उल्लेख है, जिसका अर्थ है हरिण के सींग की नोक वाले बाण । रूप गोस्वामी-चैतन्य महाप्रभु के एक शिष्य । ये पहले बंगाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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