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________________ रुक्मिण्यष्टमी-रुद्रप्रयाग ५५९ से रुक्माबाई ( रुक्मिणी ) भी एक है। लक्ष्मी के रूप में इनकी पूजा होती है। रुक्मिण्यष्टमी-मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी । प्रथम वर्ष व्रतकर्ता ( महिला) एक द्वार वाला मिट्टी का मकान बन- वाये, जिसमें गृहस्थोपयोगी सभी वस्तुएँ-धान, घी आदि रखकर कृष्ण-रुक्मिणी, बलराम-रेवती, प्रद्य्म्न-रति, अनि- रुद्ध-उषा तथा वसुदेव-देवकी की प्रतिमाएँ बनवायी जाय। सूर्योदय के समय इन प्रतिमाओं का पूजन कर सायं चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए। दूसरे दिन किसी कन्या को वह घर दान कर देना चाहिए। द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ष उसी घर में और कोष्ठ, प्रकोष्ठ बनवाकर जोड़ देने चाहिए तथा बाद में उन्हें भी कन्याओं को दान कर देना चाहिए । पञ्चम वर्ष पाँच द्वारों वाला तथा षष्ठ वर्ष छ: द्वारों वाला मकान बनवाकर कन्या को दान कर देना चाहिए। सप्तम वर्ष सप्त द्वारों वाला मकान बनवाकर, चूने से पुतवाकर, उसमें एक पलङ्ग बिछाकर उस पर वस्त्र भी बिछाना चाहिए। एक जोड़ा खड़ाऊँ, दर्पण, ओखली ( उलूखल ), मूसल, रसोई के पात्र भी रखने चाहिए। तदनन्तर कृष्ण-रुक्मिणी तथा प्रद्युम्न का उपवास एवं जागरण करते हुए पूजन करना चाहिए । द्वितीय दिवस यह अन्तिम मकान किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। इसके साथ एक गौ भी देनी चाहिए। इस व्रत के आचरण के उपरान्त व्रती शोकरहित रहेगा तथा स्त्री व्रती को पुत्राभाव का शोक नहीं सहना पड़ेगा। उनकी गणना त्रिदेवों ( त्रिमूर्ति ) में शिव अथवा महेश के रूप में होने लगी। ___ रुद्र रुद्रों (बहुवचन), रुद्रियों तथा मरुतों के पिता हैं। रुद्र तथा मरुतों में पारिवारिक समानता है, क्योंकि पिता और पुत्रगण दोनों सोने के आभूषण धारण करते हैं, धनुष-बाण इनके आयुध हैं, रोग दूर करने में ये समर्थ हैं । रुद्र का वर्णन कभी-कभी इन्द्र के साथ भी हुआ है, किन्तु दोनों में अन्तर है। रुद्र को केवल एक बार वज्रबाहु कहा गया है, जबकि इन्द्र सदा वज्रबाहु हैं। बिजली की कौंध और चमक, बादल का गर्जन एवं इसके पश्चात् जलवर्षण इन्द्र का कार्य है। परन्तु जब वज्रपात से मनुष्य अथवा पशु मरता है तो यह रुद्र का कार्य समझना चाहिए। इन्द्र का वज्र सदा उपकारी है, रुद्र का आयुध विध्वंसक है। परन्तु रुद्र के भयंकर विध्वंस के पश्चात गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इस लिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याणकारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है । अन्य देवों द्वारा किये गये अपकार को दूर करने के लिए भी उनसे प्रार्थना की गयी है। पुराणों में रुद्र के शिवरूप की महत्ता अधिक बढ़ी, यद्यपि उनका विध्वंसक रूप शिव के अन्तर्गत समाविष्ट रहा। एकादश रुद्रों और उनके गणों की विशाल कल्पना पुराणों में पायी जाती है । रुद्र पशपति अथर्वशिरस् पाशुपत उपनिषद् है । यह महाभारत के पाशुपत प्रसंगों की समसामयिक है । इसके अनुसार रुद्र-पशुपति सभी वस्तुओं के परम तत्त्व अर्थात् स्रोत तथा अन्तिम लक्ष्य भी हैं। पति, पशु एवं पाश का भी इसमें उल्लेख हुआ है । 'ओम्' के आधार पर योगाभ्यास करने का आदेश है । शरीर पर भस्म लगाना पाशुपत नियम या ब्रत का पालन बताया गया है। रुद्र-वैदिक काल में रुद्र साधारण देवता थे। उनकी स्तुति के केवल तीन सूक्त पाये जाते हैं। रुद्र की व्युत्पत्ति रुद् धातु से है जिसका अर्थ 'हल्ला करना' अथवा 'चिल्लाना' है । 'रुद्' का अर्थ लाल होना अथवा चमकना भी होता है। रुद्र प्रकृति की उस शक्ति के देवता हैं जिसका प्रतिनिधित्व झंझावात और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है । रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है। परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी वेदों में वर्णित है। वे केवल ध्वंस और विनाश के ही देवता नहीं, स्वास्थ्य और कल्याण के भी देवता हैं । अतः रुद्र की कल्पना में शिव के तत्त्व निहित थे, इसलिए रुद्र को बहुत शीघ्र महत्त्व मिल गया और रुद्रप्रयाग-उत्तराखण्ड का एक पावन तीर्थ । यहाँ अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम है। यहाँ से केदारनाथ तथा बदरीनाथ के मार्ग पृथक् होते हैं। केदारनाथ को पैदल मार्ग जाता है और बदरीनाथ को मोटर-सड़क जाती है । देवर्षि नारद ने संगीत विद्या की प्राप्ति के लिए यहाँ शङ्करजी की आराधना की थी। हृषीकेश से रुद्रप्रयाग ८४ मील है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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